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चतुर्थ प्रहर :
दिन के चतुर्थ प्रहर में मुनि को पुनः स्वाध्याय करना चाहिये । यह प्रहर स्वाध्याय का होता है।
इसी प्रकार मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा एवं चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे। यहां प्रयुक्त निद्रामोक्ष शब्द एक विशेष सूचना देता है यहां निद्रा लेना ऐसा न कहकर निद्रामोक्ष शब्द का प्रयोग किया है अर्थात् शरीर की आवश्यकता हेतु नींद लेकर उससे छुटकारा पा लेना चाहिये, ताकि अग्रिम चर्या / स्वाध्याय में आलस (प्रमाद) बाधक न बने।
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उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि की चर्या के सन्दर्भ में प्रतिलेखन एवं आहारचर्या की विस्तृत विवेचना की गई है जो निम्नानुसार है :
प्रतिलेखन
प्रतिलेखन जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द ' है । यह मुनिचर्या का अनिवार्य अंग है। प्रतिलेखन शब्द प्रतिपूर्वक लिख धातु से निष्पन्न हुआ है। लिख धातु का एक अर्थ देखना भी होता है, अतः प्रतिलेखन का अर्थ अवलोकन करना है। प्रतिलेखना का मुख्य हेतु जीवों की रक्षा अथवा अहिंसा व्रत का पालन करना है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिलेखना का समय उसके प्रकार, साधंन आदि का विस्तृत रूप से विधान किया गया है।
प्रतिलेखना द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव रूप से चार प्रकार की होती हैद्रव्य प्रतिलेखना के अन्तर्गत साधु के उपकरण - वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि का प्रतिलेखन किया जाता है। क्षेत्र प्रतिलेखन में उपाश्रय ( आवास स्थान), स्वाध्याय भूमि, परिष्ठापन भूमि (मलमूत्र के उत्सर्ग स्थान), विहार भूमि आदि का प्रतिलेखन किया जाता है। काल प्रतिलेखन के अन्तर्गत स्वाध्याय काल, ध्यान काल, आदि का ध्यान रखना होता है तथा भाव प्रतिलेखन में अपने मन में उठने वाले शुभाशुभ भावों की प्रेक्षा करना होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन चारों प्रकार की प्रतिलेखना का वर्णन
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