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________________ ३७१ निवर्तन करना वचन गुप्ति है। इसके भी चार प्रकार हैं- (१) सत्य वचन योग (२) असत्य वचन योग (३) मिश्र वचन योग और (४) व्यवहार वचन योग। वचन गुप्ति एवं भाषा समिति में अन्तर यह है कि वचन गुप्ति में जहां मौन अर्थात् चारों प्रकार के वचन योगों का निरोध करना होता है वहीं भाषा समिति में अशुभवचन योग अर्थात् असत्य एवं मिश्र वचन योग से निवृत्ति तथा शुभ वचन योग अर्थात् सत्य और व्यवहार वचन योग में प्रवृत्ति होती है। ... वचन गुप्ति के भी वे ही चारों प्रकार बताये गये हैं, जो मनोगुप्ति के सम्बन्ध में पूर्व में उल्लिखित किये गये हैं - १. सत्य वचन २. असत्य वचन ३. सत्यासत्य या मिश्र वचन और ३. असत्य- अमृषा वचन । इनके अवान्तर भेद बयालीस हैं- सत्य वचन के दस, असत्य वचन के दस, मिश्र (सत्यासत्य) वचन के दस और असत्यअमृषा वचन के बारह भेद बताये गये हैं। कायगुप्ति : काया के व्यापार का नियंत्रण करना कायगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार उठने, बैठने, सोने तथा पांचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति के विषय में जो संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप काया का व्यापार है, उसका नियन्त्रण करना काय गुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र के उन्तीसवें अध्ययन में मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के फल का निरूपण निम्न रूप से किया गया है मनोगुप्ति अर्थात् मन को नियंत्रित करने से मन की एकाग्रता सधती है और एकाग्र चित्त वाला साधक संयम की आराधना करने वाला होता है। वचनगुप्ति के द्वारा जीव निर्विचार अवस्था को उपलब्ध होता है और निर्विचारता से एकाग्रचित्त होकर अध्यात्मयोग एवं ध्यान में सुस्थित होता है। वचन गुप्ति से, निर्विचारता की उपलब्धि होती है, क्योंकि बिना विचार के वचनव्यापार सम्भव नहीं होता है। ५० उत्तराध्ययनसूत्र - २४/२२, २३ । ५. उत्तराध्ययनसूत्र - २४/२४, २५ । २२ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/५४ से ५६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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