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(6) सत्यभाषा :
वस्तु जैसी हो उसको उसी रूप में जानना, कहना या समझना सत्यभाषा है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वस्तु के स्वरूप की यथार्थ समझ या कथन सत्यभाषा का विषय है; जैसे - जीव चेतनामय है। (२) असत्यभाषा :
वस्तु-स्वरूप के विपरीत जानना, मानना या कहना असत्यता के अंतर्गत आता है। यथा, शरीर ही आत्मा है। (३) सत्यमृषा :
जो आंशिक रूप से सत्य हो और आंशिक रूप से असत्य हो वह मिश्र या सत्यासत्य भाषा कहलाती है। जैसे - हजारों लोग मारे गए; इसमें दो हजार से निन्यानवें हजार तक लोग हो सकते हैं। इस कथन में निश्चित संख्या का निर्देश नहीं होने से आंशिक सत्यता और आंशिक असत्यता है। इस प्रकार - अश्वत्थामा मारा गया, मनुष्य अथवा हाथी ? इस वाक्य में भी आंशिक सत्यता है। (४) असत्य-अमृषा : - इसे व्यवहार भाषा भी कहा जाता है; आदेश, उपदेश, आमंत्रण, निमंत्रण, प्रश्न आदि जिस भाषा में हो वह असत्य अमृषा भाषा कहलाती है। ये कथन न तो सत्य कहे जा सकते हैं और न ही असत्य, क्योंकि इनकी सत्यता असत्यता का निर्णय संभव नहीं है। ... भाषा के ये चारों प्रारूप मनोगुप्ति के अन्तर्गत भी लिये गये हैं, क्योंकि मन के चिन्तन आदि क्रिया कलाप भी भाषा के माध्यम से ही सम्भव हैं । अतः जो भाषा के प्रारूप हैं वे ही मन के भी प्रारूप हैं। इस प्रकार चिन्तनात्मक रूप इन चारों प्रकार की भाषा से मन को विरत करना मनोगुप्ति है।
वचनगुप्ति :
अशुभ एवं असत्य वचनव्यवहार का निरोध करना वचन गुप्ति है उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का
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