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गुप्ति :
उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य कृत टीका में गुप्ति के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं" (१) मन, वचन, काया की रागद्वेष रहित प्रवृत्ति गुप्ति है अथवा (२) मन, वचन और काया के व्यापार या प्रकृति का अभाव गुप्ति है। इसमें गुप्ति का प्रथम अर्थ प्रवृत्तिपरक है, इस रूप में गुप्ति भी समिति रूप ही है । यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में इन्हें भी समिति कहा गया है। सामान्यतः गुप्ति का दूसरा निवृत्तिपरक अर्थ ही अधिक प्रचलित है। गुप्ति के तीन प्रकार निम्न है : मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति।
___१. मनगुप्ति – अशुभ भावों से मन को हटाना अथवा प्रशस्त भावों के द्वारा आत्म गुणों की सुरक्षा करना मनोगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार संरम्भ (किसी कार्य की मानसिक योजना) समारम्भ (नियोजित कार्य हेतु साधन एकत्रित करना) तथा आरम्भ (कार्य को क्रियान्वित करना) की प्रवृत्तियों से मन को निवर्तित करना मनोगुप्ति है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि मानसिक क्रिया को तो संरम्भ कहा है। फिर यहां मानसिक क्रिया के सन्दर्भ में समारम्भ एवं आरम्भ में यह क्यों कहा गया ? श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार द्रव्यमन की सत्ता शरीर रूप होती है, अतः समारम्भ एवं आरम्भ की शारीरिक क्रिया में भी मन का योगदान होता ही है। दूसरे शब्दों में समारम्भ और आरम्भ का भी मानसिक पक्ष होता है। क्रिया के पूर्व ये भी विचार रूप तो होते ही हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र में मनोयोग चार प्रकार का होने से मनोगुप्ति के चार प्रकार प्रतिपादित किए गये हैं- (१) सत्य (२) असत्य (३) सत्यमृषा (मिश्र) अर्थात् आंशिक सत्य तथा आंशिक असत्य से मिश्रित और (४) असत्यअमृषा अर्थात् जो न सत्य है न असत्य केवल लोक व्यवहार रूप है।
- (शान्त्याचार्य)।
७७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र - ५१६, ५२० ७८ उत्तराध्ययनसूत्र - २४/२१ । ७६ उत्तराध्ययनसूत्र - २४/२०।
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