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________________ ३६८ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि अपने उपकरणों को प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन पूर्वक सावधानी से रखे या उठाए ताकि किसी जीव की हिंसा न हो और वह टूटे फूटे नहीं। उच्चार-प्रस्रवण समिति : शरीर के साथ आहार एवं विहार की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है, अतः मलमूत्र आदि का उत्सर्ग अर्थात् विसर्जन किस प्रकार करना चाहिये, इस विधि को उच्चारप्रस्त्रवण समिति में बताया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि को अपनी शारीरिक गंदगी को ऐसे स्थान पर डालना चाहिये जिससे जीवों की विराधना भी न हो तथा लोग घृणा भी न करें। मलमूत्र, कफ, नाक एवं शरीर का मैल, अपथ्य आहार, अनुपयोगी उपधि (जीर्ण वस्त्र, खंडित पात्र) तथा मुनि का मृत शरीर इन. सब परिहार योग्य वस्तुओं को मुनि एकान्त में निर्जीव भूमि पर विसर्जित तथा प्रतिस्थापित करे। उत्तराध्ययनसूत्र में व्युत्सर्ग की भूमि चार प्रकार की बताई गई है। १) अनापात असंलोकं : जहां लोगों का आवागमन न हो और वह स्थान दूर से दिखाई न देता हो। २) अनापात संलोक : जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वह स्थान दूर से दिखाई देता हो। ३) आपात असंलोक . : जहां लोगो का आवागमन तो हो, किन्तु दूर से दिखाई न देता हो। ४) आपात संलोक : जहां लोगों का आवागमन भी हो और दूर से दिखाई भी देता. हो। इनमें से जो भूमि अनापात एवं असंलोक हो, परोपघात से रहित हो, सम हो, अशुषिर अर्थात् पोली न हो, कुछ समय पूर्व निर्जीव हो चुकी हो विस्तृत हो, गांव से दूर हो, नीचे चार अंगुल तक अचित्त (निर्जीव) हो तथा बिल, बीज एवं संप्राणी से रहित हो, ऐसी भूमि पर ही मलमूत्र आदि का विसर्जन करना चाहिये। - ७४ उत्तराध्ययनसूत्र - २४/१३, १४ । ७५ उत्तराध्ययनसूत्र - २४/१५ । ७६ उत्तराध्ययनसूत्र - २४/१६, १७ एवं १८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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