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है। मुनि के लिए चलते समय बातचीत करना, पढ़ना, चिंतन करना, आदि क्रियायें भी निषिद्ध है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि को चलते समय पांचों इन्द्रियों के विषयों तथा पांचों प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर मात्र चलने की क्रिया में ही लक्ष्य रखकर चलना चाहिये । इस प्रकार ईर्यासमिति का मुख्य प्रयोजन यही है कि साधु का आवश्यक आवागमन इस प्रकार हो जिसमें यथासंभव जीवों की हिंसा न हो और अहिंसा व्रत का सम्यक् रूप से पालन हो ।
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ईर्यासमिति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में इसे धनुष की प्रत्यंचा कहा गया है,7 जिस प्रकार प्रत्यंचा के बिना धनुष निरर्थक हो जाता है, उसी प्रकार ईर्ष्या समिति के बिना संयम की साधना संभव नहीं होती है। 'आचारांगसूत्र' में भी ईर्यासमिति के विषय में विस्तृत विवेचन किया गया है | B
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भाषा समिति :
भाषा का संयम या वाणी का विवेक भाषा समिति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मुनि को क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथा – इन आठ दोषों से रहित समयानुकूल, निरवद्य और परिमित वचन बोलना चाहिये। 89
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समीक्षा पूर्वक बोलना ही भाषा समिति है। उत्तराध्ययनसूत्र की चूर्णि में कहा गया है कि पहले विवेक-बुद्धि से कथ्य की समीक्षा करके फिर वाणी का प्रयोग करना चाहिये।” इस सम्बन्ध में हिन्दी भाषा में एक मुहावरा प्रचलित है 'पहले तोल पीछे बोल' ।
६५ उत्तराध्ययनसूत्र - २४ / ६, ७ ।
६६ उत्तराध्ययनसूत्र - २४ / ८ /
६७ उत्तराध्ययनसूत्र - ६ / २१ ।
६८ आचारांग - २/१३/२ - ११
. ६६ उत्तराध्ययनसूत्र - २४ / ६, १० । ७० उत्तराध्ययनचूर्णि - पत्र २६७ ॥ ७१ स्थानांग
१०/६० ।
स्थानांगसूत्र में असत्य भाषण के दस कारणों का निर्देश है, उनमें मौखर्य के अतिरिक्त सात उपर्युक्त ही है तथा प्रेयस् मिश्रित, द्वेष मिश्रित और उपघात मिश्रित ये तीन अधिक है। 1
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(अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २१६ ) ।
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