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है। सूत्रकृतांग में कहा गया है : ‘से वारिया इत्थी सराइभत्तं' अर्थात् भगवान महावीर ने स्त्री-संसर्ग सहित रात्रिभोजन का निषेध किया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भगवान महावीर के पूर्व श्रमणों के लिए रात्रि भोजन का त्याग आवश्यक नहीं था। भगवान महावीर से पूर्व रात्रिभोजन त्याग को अहिंसा महाव्रत का ही एक अंग माना जाता था। - आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार 'रात को भोजन न करना' अहिंसा-महाव्रत का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तरगुण है, किन्तु मुनि के लिये वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है, अतः मूलगुण के अन्तर्गत भी है। यहां ज्ञातव्य है कि साधना के आधारभूत मौलिक गुणों को 'मूलगुण' तथा मूलगुणों के सहयोगी संरक्षक गुणों को 'उत्तरगुण' कहा जाता है।
जहां तक उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है इसमें हमें रात्रिभोजन त्याग के सन्दर्भ में मूलगुण एवं उत्तरगुण सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। परन्तु इसके उन्नीसवें एवं तीसवें अध्ययन में पंचमहाव्रत की चर्चा के साथ ही रात्रिभोजन के निषेध का भी उल्लेख मिलता है। इसके उन्नीसवें अध्ययन में कहा गया है कि श्रमण रात्रि में चतुर्विध आहार का त्याग करते हैं। तीसवें अध्ययन में पंचमहाव्रत के उल्लेख के तुरन्त बाद ही रात्रि भोजन विरमण व्रत का उल्लेख दिया गया है। इससे ऐसा लगता है कि उत्तराध्ययनसूत्र में भी दशवैकालिक के समान ही रात्रि भोजन त्याग को छठे व्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के सतरहवें अध्ययन में कहा गया है कि जो सूर्यास्त होते-होते भोजन करता है, वह पाप श्रमण है।
__रात्रिभोजन क्यों नहीं करना चाहिये इसे स्पष्ट करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि रात्रि में पृथ्वी पर सूक्ष्म, त्रस एवं स्थावर जीव व्याप्त रहते हैं, अतः रात्रि भोजन में उनकी हिंसा से नहीं बचा जा सकता है । यही कारण है कि निर्ग्रन्थ मुनियों के लिये रात्रिभोजन का निषेध है। इस प्रकार अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिये साधु रात्रिभोजन का आजीवन परित्याग करता है।
दिगम्बर परम्परा में भी श्रमणों के लिये रात्रिभोजन विरमणव्रत का पालन अनिवार्य माना गया है। आचार्य अमृतचन्द्र रात्रिभोजन के दोषों का वर्णन
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ३०४) ।
.२ सूत्रकृतांग - १/६/२८ ५३ विशेषावश्यक भाष्य - १२४३ । ५४ उत्तराध्ययनसूत्र - १६/३०; ३०/२ १५ उत्तराध्ययनसूत्र - १७/१६ । ५६ दशवकालिक -६/२३ ।
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