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३. भिक्षु को स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिये । उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य ने कहा है कि जिस स्थान पर कोई स्त्री बैठी हो उस स्थान पर उसके उठने के समय से लेकर एक मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिये। 13 आधुनिक काल में विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि एक व्यक्ति जिस स्थान पर बैठता है उसके वहां से उठ जाने पर भी ४८ मिनिट तक उसके परमाणु वहां बिखरे हुए रहते हैं। वैज्ञानिकों ने तो यहां तक सिद्ध कर दिया है कि किसी व्यक्ति का उस स्थान विशेष से चले जाने पर यदि वहां अन्य व्यक्ति या वस्तु का सम्पर्क न हो तो उस स्थान से ४८ मिनिट तक उस व्यक्ति का चित्र भी लिया जा सकता है।
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इससे यह स्पष्ट हुआ कि स्त्री या पुरूष जिस स्थान पर बैठे हों उस 1) स्थान पर ब्रह्मचारी साधक को नहीं बैठना चाहिये क्योंकि वहां बैठने पर उनमें वासना जनित भावनायें उत्पन्न हो सकती हैं।
४. भिक्षु को स्त्री के रूप आदि के दर्शन का त्याग करना चाहिये । स्त्री के हाव-भाव, रूप आदि के देखने से काम-वासना के उत्पन्न होने की संभावना I
रहती है । अतः ब्रह्मचारी को स्त्रियों के रूप आदि नहीं देखना चाहिये । वस्तुतः चक्षु का कार्य देखना हैं अतः इस प्रकार के प्रसंग उत्पन्न होने पर भिक्षु को अपनी दृष्टि 'उधर से हटा लेनी चाहिये ।
५. ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु स्त्रियों के विविध प्रकार के शब्दों का श्रवण न करे। आसपास से आते हुए स्त्रियों के कुंजन, गायन, हास्य, क्रन्दन, रूदन और विरह से उत्पन्न विलाप आदि के श्रवण से काम - विकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है, अतः भिक्षु को उस ओर से अपना ध्यान हटा लेना चाहिये।
६. ब्रह्मचारी साधक को पूर्व भोगे हुए काम-भोग का स्मरण भी नहीं करना चाहिये। इससे वासना के पुनः उद्दीप्त होने की संभावना रहती है। ७. ब्रह्मचारी साधक को सरस आहार का त्याग करना चाहिये । उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जिस प्रकार स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षीगण पीड़ित करते हैं उसी प्रकार घी, दूध आदि सरस द्रव्यों के
४३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका - पत्र ४२४
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(शान्त्याचार्य) ।
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