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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य के अट्ठारह भेदों का संकेत भी मिलता है। 38इस आधार पर उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इसके भेद निम्न प्रकार से प्राप्त होते हैं: औदारिक शरीर (मनुष्य एवं तिर्यंच का शरीर ) तथा वैक्रिय शरीर (देवता का शरीर ) इन दोनों प्रकार के शरीरों से मन, वचन और काया तथा कृत-कारित एवं अनुमोदित रूप में मैथुन सेवन के त्याग रूप ब्रह्मचर्य के अट्ठारह भेद (२x३४३ = १८) होते हैं। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आंतरिक सावधानी के साथ-साथ बाह्य वातावरण एवं बाह्य संयोगो के प्रति भी सावधानी की आवश्यकता होती है । वस्तुतः' आन्तरिक सजगता की अपेक्षा भी बाह्य निमित्तों के प्रति विशेष सजग रहना चाहिये क्योंकि साधक के अंतर में दबी वासना बाह्य निमित्त को पाकर कभी भी प्रकट हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में साधक का ध्यान इस बात के लिए विशेष आकर्षितः किया गया है कि वह ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए जीवन में उपस्थित होने वाली विभिन्न परिस्थितियों के प्रति सदैव जाग्रत रहे। इसमें ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए निम्न दस बातों को समाधिस्थान कहा गया है, क्योंकि इनके पालन से चिंत्त में समाधि रहती है। 10 ३५७ १. स्त्री, पशु एवं नपुंसक जिस स्थान पर रहते हो, वहां भिक्षु न ठहरे। उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जैसे बिल्लियों के पास चूहों का रहना उचित नहीं है उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरूष का स्त्री के निकट या स्त्री का पुरूष के निकट रहना अनुचित है । 11 हालांकि इसमें आगे यह भी कहा गया है कि यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियां भी विचलित नहीं कर सकती तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिये विविक्तवास अर्थात् स्त्री आदि के सम्पर्क से रहित एकान्त वास ही प्रशस्त है। इसके प्रथम अध्ययन में यह भी कहा गया है कि घरों में या सार्वजनिक स्थानों में भी एकाकी मुनि एकाकी स्त्री के साथ न रहे। 42 २. भिक्षु श्रृंगार रसोत्पादक कथा भी न कहे। ३८ उत्तराध्ययनसूत्र - ३१ / १४ । ३६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ४२१ ४० उत्तराध्ययनसूत्र - १६ / ११ से १३ | ४१ उत्तराध्ययनसूत्र - ३२ / १३ । ४२ उत्तराध्ययनसूत्र - १/२६ । Jain Education International (शान्त्याचार्य)। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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