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ग्रहण नहीं करवाना और ग्रहण करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन नहीं करना अस्तेयमहाव्रत है।
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि अदत्त वस्तु का ग्रहण न करे तथा निर्दोष वस्तु का ही ग्रहण करे। उत्तराध्ययनसूत्र के इस निर्देश में एक विशिष्ट रहस्य छिपा है कि किसी के द्वारा दत्त होने पर भी सचित्त वस्तु साधु के लिये अग्राह्य है क्योंकि चाहे व्यवहार में उस वस्तु का जो दाता है वह उसका स्वामी हो, किन्तु यथार्थ में तो उस दत्त वस्तु में रहा जीव ही उसका स्वामी है, उसकी आज्ञा के बिना वह वस्तु अकल्पनीय ही होती है।
अस्तेय महाव्रत अहिंसा एवं सत्य का परिपोषक है क्योंकि चौर्यकर्म व्यक्ति को हिंसक एवं असत्यभाषी बनाता है। चोरी करने से उस व्यक्ति को कष्ट होता है जिसकी वस्तु चुराई जाती है अथवा जिसको आर्थिक हानि पहुंचाई जाती है। अतः स्तेय कर्म हिंसा की सीमा में आ जाता है। शास्त्रों में धन को बाह्य प्राण कहा गया है । उसका अपहरण भी एक प्रकार की हिंसा है।
जो व्यक्ति चोरी करता है, वह भी यही चाहता है कि उसकी वस्तु की कोई चोरी न करे । चौर्य कर्म असदाचरण है, अनैतिक है । अनैतिक होने से वह आत्म गुणों का घातक है । वह स्वहिंसा भी है, साथ ही वह व्यक्ति अपनी चोरी को प्रकट न होने देने के लिए असत्य का सहारा भी लेता है। इस प्रकार अहिंसा एवं सत्य की सुरक्षा के लिये भी अस्तेय व्रत का पालन आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य महाव्रत
ब्रह्मचर्य श्रमण का चतुर्थ महाव्रत है। ब्रह्मचर्य को व्याख्यायित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - मन, वचन और काया तथा कृत कारित और अनुमोदित रूप से नवकोटि सहित मनुष्य, तिर्यंच और देव शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।"
३५ उत्तराध्ययनसूत्र - २५/२४ । ३६ पुरुषार्थसिद्धयुपाय १०३ । ३७ उत्तराध्ययनसूत्र - २५/२५ ।
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