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________________ ३५५ २) क्रोध विवेक : ___ क्रोध विवेक से तात्पर्य क्रोध के प्रति सजगता से है, क्रोध के आने पर व्यक्ति का विवेक कुंठित हो जाता है । अतः क्रोध की स्थिति में बोलना नहीं चाहिये। क्रोध की अभिव्यक्ति नहीं करनी चाहिये । ३) लोभ विवेक : - इसे लोभ त्याग भी कहा जाता है अर्थात् लोभ के वशीभूत होकर नहीं बोलना चाहिये क्योंकि लोभ के वशीभूत असत्य बोलने की संभावना रहती ४) भय विवेक : भय का त्याग करके बोलना चाहिये क्योंकि भय के कारण भी असत्य बोला जाता है। ५) हास्य विवेक : हास्य के प्रंसग में भी प्रायः असत्य बोलने की संभावना रहती ही है । अतः हास-परिहास का त्याग करना चाहिये। इन पांच भावनाओं के पालन से सत्य महाव्रत पूर्णतः सुरक्षित रहता है। इस प्रकार जैन दर्शन में कैसी भाषा बोलना चाहिये इस पर गहराई से विचार किया गया है। अस्तेय महाव्रत 'अस्तेय' श्रमण का तीसरा महाव्रत है । इसका शास्त्रीय नाम 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं' अर्थात् सर्वथा रूप से अदत्तादान का त्याग है। किसी वस्तु को उसके स्वामी की स्वीकृति या अनुमति के बिना ग्रहण करना अदत्तादान है और उसका सर्वथा त्याग करना अस्तेय महाव्रत है। __ निर्ग्रन्थ साधक कृत, कारित और अनुमोदित तथा मन, वचन और काया द्वारा चौर्य कर्म से अपनी आत्मा को सर्वथा विरत रखता है। संसार की कोई भी वस्तु, चाहे वह गांव, नगर या अरण्य (वन) में हो, अल्प हो या अधिक, सजीव हो या निर्जीव, उसे उसके स्वामी की आज्ञा के बिना स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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