________________
पूर्वापर विरोध से रहित निरवद्य वचन प्रयोग करने से ही साधु का सत्य महाव्रत अखण्डित रहता है। इस व्रत के अन्तर्गत अपनी प्रशंसा एवं दूसरों की निन्दा को भी त्याज्य बताया गया है । 31
सत्य का महत्त्व
सत्य का महत्त्व स्पष्ट करते हुए आचारांगसूत्र में कहा गया है कि साधक को सत्य में स्थित होना चाहिये । सत्य में अधिष्ठित प्रज्ञावान साधक समस्त पापों का क्षय कर देता है और संसार सागर से पार हो जाता है । मात्र यही नहीं, इसमें सत्य को आत्म साक्षात्कार की कुंजी भी बताया है | 32
प्रश्नव्याकरणसूत्र में तो यहां तक कहा गया है कि सत्य भगवान है तथा यह समूचे लोक में सारभूत तत्त्व है। सत्यासत्य का भेद निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है । दूसरों के अहित की दृष्टि से बोला गया सत्यवचन सत्य प्रतीत होने पर वस्तुतः असत्य है। वैदिक परम्परा में भी प्रिय सत्य बोलने का ही विधान किया गया हैं अप्रिय नहीं – 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
रूप है।
·
पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सत्य भी वाचिक अहिंसा का एक
सत्यमहाव्रत की भावनायें
सत्य महाव्रत के पालन के लिये निम्न पांच भावनाओं का विधान किया गया है जिनका उल्लेख आचारांगसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में उपलब्ध होता
है" -
३५४
। अनुविचिन्त्य भाषण (वाणी विवेक ) :
२४
विचारपूर्वक बोलना चाहिये । बिना सोचे-समझे अर्थात् बिना विचारे
बोलने पर वचन कलहकारक एवं असत्य हो सकता है।
३१ प्रश्नव्याकरण २/२/१२० से १२६ ।
३२ आचारांग - १/३/२/४०, ४१
३३ प्रश्नव्याकरण - ७/२/१०
आचारांग - २ /१५/५१ से ५६ उत्तराध्ययनसूत्रटीका पत्र -
Jain Education International
- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ३०) ।
( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड ३, पृष्ठ ६६० ) । (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २४३) । (शान्त्याचार्य) ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org