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१) भावसत्य :
भाव सत्य से साधक के अन्तःकरण की विशुद्धि होती है तथा वह शुद्ध धर्म का आचरण कर इस जन्म एवं आगामी जन्म को सफल बना लेता है। २) करणसत्य :
करण सत्य से साधक सत्यपूत आचरण करता है। वह जैसा कहत है वैसा ही करता है अर्थात् उसकी कथनी एवं करनी में एकरूपता होती है। ३) योगसत्य :
योगसत्य से योग की विशुद्धि होती है अर्थात् इसमें साधक मन, वचन एवं काया से सत्य का पालन करता है।
प्रज्ञापनासूत्र में सत्य वचन के दस भेद किये हैं28_
१. जनपद सत्य २. सम्मत सत्य ३. स्थापना सत्य ४. नाम सत्य ५ रूप सत्य ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८. भाव सत्य ६. योग सत्य और १०. औपम्य सत्य।
दशवैकालिकसूत्र में तो यहां तक कहा गया है सत्य होने पर भी काने को काना, रोगी को रोगी, नपुंसक को नपुंसक, चोर को चोर नहीं कहना चाहिये। इसी प्रकार 'रे' 'तु' आदि अनादर सूचक शब्दों का प्रयोग भी नहीं करना चाहिये। तीर्थकर एवं आचार्य आदि भी सामान्य जन के लिये देवानुप्रिय, आयुष्मान, सौम्य आदि सम्मान सूचक शब्दों का प्रयोग करते थे । इसका प्रमाण आगम ग्रन्थों में व्यापक रूप से उपलब्ध होता है।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है सत्य यदि संयम का विघातक हो तो उसे नहीं बोलना चाहिये। इसी प्रकार वैमनस्य एवं विवाद उत्पन्न करने वाले कलहकारक, अन्याय, अविवेक, अंहकार और धृष्टता से परिपूर्ण वचन सत्य होने पर भी साधु के लिए वर्जनीय हैं। साधु वर्ग को ऐसे वचन बोलने चाहिये जो हित, मित एवं प्रिय हों । सुविचारित, लोभ, भय, हास उपहास तथ
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ १७१) ।
२८ प्रज्ञापना - ११/३३ २६ दशवकालिक - ७/१४ से २२ । ३० (क) आचारांग - १/१/१/१।
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र - २/१; १६/१ ।
(ग) ज्ञाताधर्मकथा - १/१/१११ । Jain Education International
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