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________________ ३५० परित्याग करे क्योंकि गहकर्म के समारंभ में त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर जीवों का वध होता है। इसी प्रकार इसमें भिक्ष को भक्त-पान के पकाने और पकवाने तथा अग्नि जलाने का भी निषेध किया है क्योंकि उसमें षट्काय के जीवों की हिंसा होती है। आगे औद्योगिकी हिंसा का निषेध करते हुए इसमें कहा गया है कि क्रय-विक्रय में महान् दोष है; श्रमण के लिये भिक्षावृत्ति सुखावह है। श्रमण को विरोधी हिंसा से विमुख होने के लिये भी उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर निर्देश दिये गये हैं। यथा, भिक्षु दारूण या अप्रिय वचन सुनने पर भी उसका प्रतिकार न करे; यहां तक कि मारे-पीटे जाने पर मन से भी क्रोध न करे; और क्षमा को धारण करे। ब्राह्मण कुमारों के द्वारा बेंत, चाबुक एवं दंडे से पीटे जाने पर भी हरिकेशी मुनि ने उनका विरोध नहीं किया तथा उस उपसर्ग को समभाव से धारण किया ।" अहिंसा का महत्त्व अहिंसा भारतीय संस्कृति का प्राण है । वैदिक संस्कृति में भी 'अहिंसा परमो धर्मः कहकर इसे सर्वश्रेष्ठ धर्म प्रतिपादित किया है। यही सत्य जैनागम दशवैकालिकसूत्र में भी अनुगुंजित होता है । 'धम्मो मंगलमुक्किनुं अहिंसा संजमो तवो' अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। वस्तुतः संयम एवं तप भी अहिंसा की भावना से अनुप्राणित होने पर ही उत्कृष्ट कहे जा सकते हैं। विवशता एवं अभाव की स्थिति में रखा गया संयम एवं किया गया तप मंगल या उत्कृष्ट नहीं हो सकता है। ..... अहिंसा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुये प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है अहिंसा भगवती है जो भयग्रस्त के लिए शरण तुल्य, पक्षियों के लिए गगन तुल्य, प्यासों के लिए जल तुल्य, भूखों के लिए अशन तुल्य, समुद्र में डूबते हुए के लिए जहाज तुल्य, बीमारों के लिए औषध तुल्य है। इन सब विशिष्टताओं से १६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३५/८ से १५ । १७ उत्तराध्ययनसूत्र - २/२५, २६, १२/१६, ३२ । दशवकालिक - १/१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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