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________________ ३४६ शब्द जुड़ा हुआ है किन्तु जैनदर्शन में अहिंसा के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों . पक्षों को स्वीकार किया गया है । उत्तराध्ययनसूत्र के अनुशीलन से यह स्पष्ट फलित हो जाता है कि अहिंसा न तो एकान्त निषेधरूप है और न ही एकान्त विधिरूप । इसमें जहां एक ओर 'न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए' 'न य वित्तासाए परं' आदि सूत्र के द्वारा निवृत्तिपरक अहिंसा के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है तो दूसरी ओर 'मेत्तिं. भूएसु कप्पए,' 'हिय निस्सेसाए सव्वजीवाणं' आदि सूत्रों के द्वारा अहिंसा का प्रवृत्तिपरक स्वरूप उजागर होता है।'' (अहिंसा का मुख्य तात्पर्य स्व और पर की हिंसा से विरत होना है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का नाश : करना स्वहिंसा है तथा दूसरे प्राणियों को कष्ट, पीड़ा आदि पहुंचाना परहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार श्रमण के लिए स्व एवं पर दोनों हिंसा से विरत होना आवश्यक है। वस्तुतः स्वहिंसा से विरत हुए बिना परहिंसा से विरत होना सम्भव नहीं है। क्योंकि दूसरों की हिंसा में आत्मगुणों का हनन अवश्यंभावी है। कहा गया है- 'प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा - अतः मूल में प्रमाद को हिंसा का मूल कारण माना है।) अहिंसा व्रत का पालन श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के लिये अनिवार्य है । फिर भी, इन दोनों के द्वारा आचरित अहिंसा के विधान में मुख्य अंतर यह है कि जहां गृहस्थ साधक केवल त्रस प्राणियों की संकल्पी हिंसा से विरत होता है वही श्रमण त्रस एवं स्थावर सभी जीवों की सभी प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है। हिंसा के चार प्रकार हैं- १. संकल्पी हिंसा २. आरंभी हिंसा ३. उद्योगी हिंसा और ४. विरोधी हिंसा । इनमें गृहस्थ को संकल्पी हिंसा से बचने का निर्देश दिया गया है। क्योंकि गृहस्थ जीवन में आरंभी, उद्योगी एवं विरोधी हिंसा से बचना शक्य नहीं है। ___ उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण के लिए संकल्पी हिंसा के त्याग का तो स्पष्टतः विधान किया ही है साथ ही आरंभी हिंसा का निषेध करते हुए इसके पैंतीसवें 'अणगारमार्गगति' अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु गृहकर्म के समारंभ का १४ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/६; २/२० । १५ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/२; ८/३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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