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वक्रजड़ होते हैं तथा मध्य के बाईस तीर्थकरों के काल के मनुष्य ऋजुप्राज्ञ होते थे। अतः उनकी प्रकृति को लक्ष्य में रखकर इन दो प्रकार के धर्मों का विधान किया
गया।
प्रथम तीर्थंकर के साधुओं के लिये आचारविधि का यथावत् ग्रहण करना अर्थात् उसको समझना कठिन था। भगवान महावीर के साधुओं के लिए आचार विधि का यथावत् पालन दुष्कर है तथा बाईस तीर्थकरों के साधु आचार विधि को यथावत् ग्रहण कर लेते थे तथा उसका पालन भी वे सरलता से करते थे। भगवान पार्श्व ने अब्रह्म को परिग्रह के अन्तर्गत माना था । किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् कुछ साधु कुतर्क के आधार पर मैथुन का समर्थन करने लगे उनका कहना था कि भगवान पार्श्वनाथ ने स्त्री को रखने का निषेध किया है, उसके भोग का निषेध नहीं किया है। सूत्रकृतांग में हमें उनके इस कुतर्क की सूचना प्राप्त होती है। अतः उनके कुतर्क का निवारण करने के लिए भगवान महावीर ने स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की विशेष व्यवस्था दी ।
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अहिंसा
महाव्रत
अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है । जैन श्रमण का अहिंसा व्रत महाव्रत कहलाता है। इसके लिए जैन शास्त्रों में 'सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' शब्दों का प्रयोग किया जाता है", अर्थात् हिंसा से पूर्णतः विरत होना है। इसी की व्याख्या करते हुये उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 'मन, वचन एवं काया तथा कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से किसी भी परिस्थिति में त्रस एवं स्थावर जीवों को दुःखित न करना अहिंसा महाव्रत है। 12 मन से किसी को कष्ट पहुंचाने का विचार करना तथा किसी दूसरे के द्वारा किसी जीव को कष्ट पहुंचाने पर उसका समर्थन करना भी हिंसा है ।
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६ उत्तराध्ययनसूत्र - २३ / २६ ।
१० सूत्रकृतांग १/३/६६/७०
११ स्थानांग - ४ / १३१
उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो हिंसा की अनुमोदना करते हैं वे भी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते । 13 अहिंसा का शाब्दिक अर्थ करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि हिंसा न करना अहिंसा है चूंकि अहिंसा के साथ निषेधात्मक 'अ'
१२ उत्तराध्ययनसूत्र - ८/१० ।
१३ उत्तराध्ययनसूत्र - ८/८ ।
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(अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २८५) । (लाडनूं) ।
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