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प्राप्त नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में चातुर्यामों के नामों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा अपरिग्रह का उल्लेख मिलता है ।' स्थानांगसूत्र के अनुसार चातुर्याम निम्न हैँ- १. सर्वप्राणातिपात विरमण २. सर्वमृषावाद विरमण ३. सर्वअदत्तादान विरमण और ४. सर्व बहिद्धादाण (परिग्रह) विरमण ।
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आचार्य अभयदेवसूरि ने बहिद्धादाण का अर्थ 'परिग्रह' किया है। उन्होंने परिग्रह के त्याग में अब्रह्म का त्याग भी इष्ट बताया है। वस्तुतः बहिद्धादाण का शाब्दिक अर्थ बाह्य वस्तु के ग्रहण का त्याग है । चूंकि स्त्री भी बाह्य वस्तु है अतः उसका त्याग भी आवश्यक है एवं स्त्री के त्याग में ब्रह्मचर्य के पालन का भी संकेत है। भगवान पार्श्वनाथ की इस चातुर्याम व्यवस्था के स्थान पर भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अलग-अलग करके निम्न पंच महाव्रत के पालन का विधान किया है- १. अहिंसा २. सत्य ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह |
यहां यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि एक ही परम्परा के सिद्धान्तों में यह चातुर्याम और पंचमहाव्रत का अन्तर क्यों ? उत्तराध्ययनसूत्र में भी यह उल्लेख प्राप्त होता है कि भगवान पार्श्व की परम्परा के आचार्य केशीश्रमण तथा भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी का जब अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती नगर में आगमन हुआ तब उनके शिष्यों को यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि एक ही प्रयोजन को लेकर चलने वाले हम लोगो की आचार पद्धति में भिन्नता क्यों है ? शिष्यों के सन्देह का निवारण करने हेतु आचार्य केशीश्रमण गौतमस्वामी से पूछते हैं कि भगवान पार्श्व ने चातुर्याम रूप धर्म का प्रर्वतन किया जबकि भगवान महावीर ने पंचमहाव्रत रूप धर्म का उपदेश दिया; ऐसा क्यों ?
इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में गौतमस्वामी ने कहा कि यथार्थ में चातुर्याम और पंचमहाव्रत में कोई अन्तर नहीं है। केवल वर्तमान युग की ज्ञान क्षमता और स्वभावगत विचित्रता को देखकर भगवान महावीर ने चातुर्याम के स्थान पर पंच महाव्रत रूप धर्म का विधान किया। गौतमस्वामी ने जीवों की प्रकृति का कालगत विभाजन करते हुए यह भी कहा है कि प्रथम तीर्थंकर के काल के मनुष्य ऋजुजड़ होते थे, अंतिम तीर्थंकर के काल के मनुष्य
७ उत्तराध्ययनसूत्रटीका - पत्र ५०२ ८ स्थानांग - ४ / १३१
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- (शान्त्याचार्य) ।
- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६ ०६ ) |
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