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________________ व्यक्ति की दीक्षा पहले हुई हो और उसके पश्चात् किसी ५०-६० वर्ष की वय वाले व्यक्ति ने संयम ग्रहण किया हो तो वह पूर्व में दीक्षित २० वर्ष की वय वाला युवा मुनि ही ज्येष्ठ माना जायेगा और परवर्ती काल में दीक्षित वृद्ध मुनि के लिए वन्दनीय होगा । ३४५ साधनात्मक जीवन के लिए अनुकूल वातावरण की अत्यन्त आवश्यकता होती है । इसके लिए गृहवास का त्याग करके, वेश परिवर्तन करना आवश्यक है यद्यपि जैन दर्शन में वेशपरिवर्तन की अपेक्षा आन्तरिक विशुद्धि को महत्त्वपूर्ण माना गया है, फिर भी व्यवहार के क्षेत्र में वेश का भी महत्त्व है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार पूर्ण आत्मविशुद्धि होने पर गृहस्थ या अन्य किसी परम्परा के मुनिवेश से मुक्ति संभव है। इसमें गृहस्थ को भी सिद्धि का अधिकारी माना गया है। परन्तु आत्मविशुद्धि हेतु बाह्य परिवेश की भी शुद्धि आवश्यक है। जैनपरम्परा में उपादान कारण के महत्त्व के साथ-साथ निमित्त कारण को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। उचित परिवेश के अभाव में साधक का पतन हो सकता है; वह भटक सकता है। एतदर्थ आगम साहित्य में साधक के लिये प्रारम्भ में संघीय जीवन में रहकर साधना करना आवश्यक माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में साधक को अत्यधिक जागरूक रहकर साधना करने की तथा अधिक से अधिक सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा दी गई है। जैन श्रमण का उद्देश्य विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना है। वस्तुतः श्रमण वासनात्मकं जीवन से ऊपर उठकर विवेकपूर्ण जीवन जीता है। श्रमण जीवन का तात्पर्य श्रमण शब्द को विश्लेषित करने पर स्पष्ट हो जाता है । श्रमण शब्द के स्थान पर समन एवं शमन शब्द का भी प्रयोग मिलता है। इन तीनों के अर्थ निम्न हैं: १. श्रमण : श्रम शब्द पुरूषार्थ का वाचक है अर्थात् जो अपने विकारों और वासनाओं को दूर करने का प्रयत्न (श्रम) करता है उसे श्रमण कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो आत्मविशुद्धि की दिशा में प्रयत्नशील रहता है, वह श्रमण है। २. समन : समन शब्द का अर्थ है जो समभाव में रहता है, वह समन है । वस्तुतः जो सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह समन है । ३ उत्तराध्ययनसूत्र - ४ / ६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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