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उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित श्रमणाचार
भारतीय संस्कृति जहां वैदिक-संस्कृति जहां गृहस्थाश्रम को अधिक महत्त्व प्रदान करती है, वहीं श्रमण-संस्कृति श्रमण धर्म को प्रमुखता देती है, यद्यपि बाद में श्रमण संस्कृति के प्रभाव से ब्राह्मण संस्कृति ने भी श्रमण-जीवन के महत्त्व को स्वीकार तो किया है तथापि उसमें महत्ता गृहस्थाश्रम की ही बनी रही। श्रमण संस्कृति में प्रारम्भ से ही श्रमण जीवन का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । जैन परम्परा, श्रमण परम्परा है । अतः इसमें श्रमण जीवन को ही प्रधान माना गया है। इसमें गृहस्थाश्रम में रहने वाला गृहस्थ श्रावक भी व्रतों को ग्रहण करते समय इस सत्य को स्वीकार करता है कि मैं श्रमणधर्म को स्वीकार करने में असमर्थ हूं । अतः मैं श्रावक के द्वादशव्रतों को ग्रहण कर रहा हूं।
___ उत्तराध्ययनसूत्र के तेरहवें अध्ययन में चित्रमनि संभूति राजा को सर्वप्रथम श्रमणजीवन अंगीकार करने की ही प्रेरणा देते है, फिर बाद में उसकी असमर्थता को जानकर उसे आर्यकर्म अर्थात् गृहस्थ जीवन का उपदेश देते हैं।' उत्तराध्ययनसूत्र के नवमें अध्ययन में यह उल्लेख आता है कि छद्मवेशधारी इन्द्र ने जब नमिराजर्षि को गृहस्थ जीवन में रहने के लिए प्रेरित किया तथा यह कहाः "राजर्षि ! पहले गृहस्थ जीवन के कर्तव्य का निर्वाह कर फिर तुम श्रमण हो जाना' तो उसके उत्तर में नमिराजर्षि ने कहाः “जो मानव प्रतिमास दस लाख गायें दान देता है उसके लिए भी उस दान की अपेक्षा संयम जीवन ही श्रेष्ठ है क्योंकि संयमी. व्यक्ति प्राणी मात्र को सर्वश्रेष्ठ दान – अभयदान – देता है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि जैनपरम्परा में श्रमण जीवन का अत्यधिक महत्त्व रहा है। यह श्रेष्ठता व्यक्ति
की नहीं, साधना की है, उसके संयमी जीवन की है। यही कारण है कि श्रमण . जीवन में ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता का निर्धारण भी संयमी जीवन के आधार पर ही होता है। उदाहरण के रूप में एक २० वर्ष की वय के
उत्तराध्ययनसूत्र - १३/३२ । २ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/४४ ।
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