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३. सुख-दुःख तितिक्षा : कायोत्सर्ग से सुख - दुःख को सहन करने की क्षमता
का विकास होता है।
४. अनुप्रेक्षा
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५. ध्यान
: कायोत्सर्ग से शुभ ध्यान का लाभ होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कायोत्सर्ग तप की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। संक्षेप में कहें तो इससे देहजाड्य और मतिजाड्य दूर होता है। फलतः कायोत्सर्ग का साधक ही अन्य सभी तप, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, अनशन आदि की साधना पूर्ण रूपं से कर सकता है। तप के इन बारह प्रकारों का केवल - वैयक्तिक जीवन के लिये ही नहीं वरन् समाज के लिए भी महत्त्व है।
: शरीर का मोटापा दूर होने पर और चित्त के एकाग्र होने से चिन्तन-मनन सहज हो जाता है।
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कई विचारक तप को स्वपीड़न मानकर उसकी आलोचना भी करते हैं लेकिन जिस तप में समत्व की साधना नहीं, देह - आत्मा का भेदज्ञान नहीं; ऐसा देहदण्ड रूप तप जैन साधना को मान्य नहीं है। तप ज्ञान से समन्वित होना चाहिये । इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो अज्ञानीजन मास-मास की तपश्चर्या करके उसकी समाप्ति पर कुशाग्र जितना अत्यल्प आहार करते हैं वे भी ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नहीं करते हैं । यही बात इन्हीं शब्दों में धम्मपद में भी कही गई है। भगवान पार्श्वनाथ ने भी कमठ के अज्ञानजनित तप को अनुचित बताया था। तप को मात्र देहदंडन मानना बहुत बड़ा भ्रम है। उपवास, कायक्लेश आदि तप देहदण्ड नहीं; वह देह को साधने की प्रक्रिया है जिससे हर परिस्थिति में व्यक्ति सम रह सके। यह कष्टसहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति की आधारशिला है। जैन दर्शन के अनुसार तपस्या का मुख्य प्रयोजन तो आत्म शुद्धि है जैसे घृत की शुद्धि के लिए घी के साथ पात्र भी गर्म होता है पर उसका प्रयोजन घी को तपाना ही होता है; पात्र को तपाना नहीं। उसी प्रकार तपस्या का प्रयोजन आत्मशुद्धि हेतु आत्मविकारों को
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