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________________ ३४१ उत्तराध्ययनसूत्र में कायोत्सर्ग को प्रधानता देने का कारण यही प्रतीत होता है कि व्यक्ति की सबसे बड़ी आसक्ति काया के प्रति होती है। उसके प्रति उदासीनता (निर्ममत्व) हो जाने पर अन्य आसक्तियां सहज टूट जाती हैं। अतः कायोत्सर्ग के साधक को व्युत्सर्गतप के अन्य भेद भी सहज सिद्ध हो जाते हैं। जैन दर्शन में कायोत्सर्ग एक विशिष्ट प्रकार की साधना पद्धति है। साधक के जीवन में इसका विशिष्ट स्थान है। यही कारण है कि इसकी गणना तप में, प्रायश्चित्त तथा षट् आवश्यक में भी की गयी है। साधु के दैनिक जीवन में अनेक बार कायोत्सर्ग करना होता है ताकि देह के प्रति निर्ममत्व का भाव सदैव जागृत रहे। कायोत्सर्ग का फल प्रतिपादित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि कायोत्सर्ग से जीव प्रायश्चित्त योग्य अतिचारों की विशुद्धि कर भार हटा देने वाले भारवाहक की तरह सुख का अनुभव करता है। कायोत्सर्ग से जीव की मनोभूमिका प्रशस्त या शुभ बनती है। - इसीलिये उत्तराध्ययनसूत्र के छब्बीसवें अध्ययन में कायोत्सर्ग को दुःखनिवारक भी कहा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कायोत्सर्ग से चित्त की विशुद्धि, हृदय की प्रसन्नता तथा प्रशस्त भावों की प्राप्ति होती है। प्रकारान्तर से आवश्यकनियुक्ति में भी कायोत्सर्ग के निम्न फल बतलाये गये हैं - १. देहजाड्य शुद्धि : कायोत्सर्ग में शरीर को शिथिल किया जाता है, जिससे शरीर हल्का होता है । अतः शरीर का मोटापा कम होता है। शरीर से मोटापा दूर होने पर. उसमें लोच आता है। फलतः हडिड्यां भी कम टूटती हैं। २. मतिजाड्य शुद्धि : कायोत्सर्ग में मन की एकाग्रता होने से बौद्धिक जड़ता दूर होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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