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गुरूजन एवं वरिष्ठजन के प्रति सम्मान के भाव रखना, उनकी आज्ञा में चलना, विनयतप है । उत्तराध्ययनसूत्र में इसके पांच प्रकार वर्णित किये हैं : १. अभ्युत्थान : गुरू आदि बड़े जनों के आने पर खड़े होना । २. अंजलिकरण : गुरूजनों को हाथ जोड़कर सम्मान देना । ३. आसन दान : बैठने के लिए उन्हें आसन प्रदान करना; ४. गुरूभक्ति : उनकी स्तुति करना और ५. भाव शुश्रूषा : गुरू की सेवा करना ।
३. वैयावृत्य :
. वैयावृत्य का अर्थ सेवा शुश्रूषा करना होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आचार्य आदि की आवश्यकता के अनुसार सेवा करना वैयावृत्य तप है।12 वैयावृत्य (सेवाव्रत) एक ही है पर सेव्य के आधार पर उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में इसके १० भेद किये गये हैं19- १) आचार्य २) उपाध्याय ३) स्थविर ४) तपस्वी ५) ग्लान ६) शैक्ष ७) साधर्मिक ८) कुल ६) गण और १०) संघ।
इन सब की सेवा करना साधु का कर्त्तव्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसे. कर्त्तव्य भी माना है और तप भी । ।
४. स्वाध्याय :
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार स्वाध्याय तप के पांच प्रकार हैं : १. वाचना : सद्ग्रन्थों का अध्ययन/वाचन करना वाचना है। २. पृच्छना : ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरू आदि ज्ञानीजनों से प्रश्न पूछना
पृच्छना है।
१२१ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/३२ । १२२ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/३३ । १२३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३००४
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र -३००६ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०१२
- (शान्त्याचार्य)। - (लक्ष्मीवल्लभगाणि)। - (कमलसंयम उपाध्याय)।
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