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________________ ३. परावर्तना : ३३६ अधीत ज्ञान को दोहराना या पुनरावर्तन करना परावर्तना है। तत्त्वार्थसूत्र में इसे 'आम्नाय' कहा गया है। ४. अनुप्रेक्षा : पठित / श्रवित ज्ञान का चिन्तन या मनन करना अनुप्रेक्षा है। ५. धर्मकथा : धर्म - उपदेश देना, सुनना, धर्मकथा है। इनकी विस्तृत विवेचना के लिये इसी ग्रन्थ का ग्यारहवां अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र का शिक्षादर्शन' द्रष्टव्य है। ५. ध्यान : ध्यान को परिभाषित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र की बृहद्वृत्ति में कहा गया है कि स्थिर अध्यवसाय अर्थात् विचारों की स्थिरता ध्यान है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि आर्त्त व रौद्र ध्यान का त्याग करे तथा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में रत रहे । यही ध्यान तप है। इससे स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान ही तप की श्रेणी में आते हैं; आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान नहीं । ध्यान की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत ग्रन्थ के बारहवें अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित मनोविज्ञान' में की गई है। ६. व्युत्सर्ग : उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार व्युत्सर्गतप को आभ्यन्तर तप में छट्टा स्थान दिया गया है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में इसे पांचवा आभ्यन्तर तप माना गया है। व्युत्सर्ग शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक उत्सर्गशब्द से बना है । 'वि' अर्थात् विशिष्ट और उत्सर्ग अर्थात् त्याग है। इस प्रकार विशिष्ट त्याग व्युत्सर्ग है। देह (काया) हमारे ममत्व का घनीभूत केन्द्र है, उसके प्रति ममत्व का त्याग ही विशिष्ट त्याग है; अतः इसे कायोत्सर्ग भी कहते हैं । यह काया का नहीं काया के प्रति ममत्वभाव का त्याग Jain Education International उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में व्युत्सर्ग के मुख्यतः १) द्रव्य (बाह्य) और २) भाव (आभ्यन्तर) ऐसे दो भेद किये गये हैं। पुनश्च द्रव्यव्युत्सर्ग के चार भेद For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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