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________________ ३३७ श्रमण जीवन का प्रारम्भ करना होता है। उसकी पूर्व दीक्षापर्याय सम्पूर्णतः समाप्त कर दी जाती है और उस दिन वह गण में सबसे छोटा हो जाता है। ६. अनवस्थापना : इस प्रायश्चित्त के अनुसार अपराधी साधु को कुछ समय तक आचार्य आदि के बताये अनुसार विशिष्ट तप करके संयम पालन की अपनी योग्यता को पुनः सिद्ध करना पड़ता है। आचार्य यदि उसे योग्य समझते हैं तो कुछ काल पश्चात् उसकी पुनः दीक्षा हो सकती है अन्यथा नहीं। १०. पारांचिक : अपराध की अति हो जाने पर जब आचार्य अपराधी को संयम के अयोग्य जानते हैं तो उसे साधु संस्था से बहिष्कृत कर देते हैं। संक्षेप में अपराधी साधु को संघ से अलग कर देना पारांचिक प्रायश्चित्त है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है। ये प्रायश्चित्त दोषों के अनुसार उत्तरोत्तर कठिन हैं। यहां यह ध्यातव्य है कि प्रायश्चित्त दण्ड नहीं है; क्योंकि राजनीति में जो दण्ड दिया जाता है उसमें अपराधी को सामान्यतया अपराध के प्रति ग्लानि या पश्चाताप नहीं होता है। पुनश्च वह दण्ड को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार भी नहीं करता है । किन्तु प्रायश्चित्त के क्षेत्र में सर्वप्रथम दोषी श्रमण स्वयं अपराधबोध को महसूस करता है और दण्ड को इतनी प्रसन्नता से स्वीकार करता है जैसे कोई कर्जदार अपना कर्ज चुकाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। गलती या दोष होना सामान्य मानव की प्रकृति है। अतः पूर्वकृत दोष का पश्चाताप कर भविष्य में अपराध का पुनरावर्तन न हो इसके लिये प्रायश्चित्त - के नौ ही प्रकार का निरूपण है। उसमें पारांचिक का उल्लेख नहीं है, क्योंकि प्रायश्चित्त अपराधी द्वारा स्वयंस्वीकृत दण्ड है, जबकि पारांचिक संघ या आचार्य द्वारा आरोपित दण्ड है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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