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________________ ३३६ ३. तदुभय : तदुभय से तात्पर्य है आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों के द्वारा जिन पापों की शुद्धि होती हो वह तदुभयार्ह प्रायश्चित्त तप है। कुछ पाप . ऐसे होते हैं जिनकी शुद्धि केवल आलोचना या केवल प्रतिक्रमण से नहीं होती है। अतः उन पापों की शुद्धि के लिये आलोचना एवं प्रतिक्रमण दोनों की आवश्यकता होती है। आलोचना का अर्थ है भूल को भूल के रूप में देखना और प्रतिक्रमण का अर्थ है उस भूल को सुधार कर पुनः सत्य मार्ग का अवलम्बन लेना। ४. विवेक : प्रमादवश या भूल से आई हुई अकल्पनीय वस्तु का बोध होने पर उसका त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है। दूसरे शब्दों में उचित और . अनुचित की चेतना को सदैव जागृत रखकर अनुचित का त्याग कर देना विवेक है। . ५. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) : देहासक्ति को कम करने हेतु स्वयं को शुभ ध्यान में स्थिर करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त स्वरूय कायोत्सर्ग करना कायोत्सर्ग तप है। पण्डित सुखलालजी के अनुसार एकाग्रता पूर्वक शरीर आदि व्यापारों को छोड़ना व्युत्सर्ग है। ६. तप : अपराध या गलती होने पर आत्मशुद्धि के निमित्त उपवास आदि तप स्वीकार करना तप प्रायश्चित्त है अर्थात् कृत अपराध के प्रति दण्डस्वरूप तप करना तप प्रायश्चित्त है। ___७. छेद : प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में छेद का अर्थ दीक्षा पर्याय कम करना है। दूसरे शब्दों में असदाचरण में प्रवृत्त साधु की दीक्षापर्याय को कम कर देना, छेद प्रायश्चित्त है। इससे उस साधु की वरीयता कम हो जाती है अर्थात् उससे दीक्षापर्याय में छोटे साधु बड़े हो जाते हैं। इसमें दोष के अनुसार दिवस, पक्ष, मास से लेकर छ: मास तक की अवधि को उसके संयम-काल में से कम कर दिया जाता है। ८. मूल : मूल प्रायश्चित्त में अपराधी साधु को पुनः दीक्षा दी जाती है अर्थात् उसे पुनः महाव्रतों में आरोपित करते हैं। दूसरे शब्दों में उसे नये सिरे से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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