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साधु-साध्वी जिन स्थानों पर रहते हैं वहां इन बाह्य निमित्तों की उपस्थिति रहती है। अतः आज अन्य तीन प्रतिसंलीनताओं की साधना भी अपेक्षित है। आभ्यन्तर तप के छ: प्रकार निम्न हैं१. प्रायश्चित्त :
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आलोचना आदि के द्वारा अपने पापों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त तप है।18
प्राकृत भाषा में इसे 'पायच्छित्त' कहा गया है; उसका अर्थ है पाय अर्थात् पाप का जो छेदन करता है। इस प्रकार जो पाप को दूर करता है अथवा चित्त की जो प्रायः शुद्धि करता है उसे पायच्छित्त कहते हैं।19 उत्तराध्ययनसूत्र में प्रायश्चित्त के देस प्रकारों का निर्देश तो है, किन्तु उनके अलग-अलग नाम नहीं दिये हैं जब कि भगवतीसूत्र, स्थानांगसूत्र, औपपातिकसूत्र तथा उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार प्रायश्चित्त के दस प्रकारों का नाम निर्देश भी निम्न रूप से प्राप्त होता है120 -
१. आलोचना : जिन पापों की शुद्धि आलोचना से हो जाये वे आलोचनाह कहलाते हैं। आलोचना का अर्थ अपराध या भूल को अपराध के रूप में स्वीकृत करके आचार्य आदि के समक्ष उसे प्रकट कर देना है। आलोचना का प्रतिफल बतलाते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्नकारक तत्त्वों का नाश होता है, ऋजु (सरल) भाव की प्राप्ति होती है; स्त्रीवेद एवं नपुंसकवेद का बन्ध नहीं होता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है।
२. प्रतिक्रमण : साधना के क्षेत्र में हुए विचलन से पुनः वापस लौट आना तथा भविष्य में उन पापकर्मों से दूर रहने की सावधानी रखना प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में विभावदशा में गई हुई अपनी आत्मा को पुनः स्वभावदशा में स्थिर करना प्रतिक्रमण है। जैन दर्शन में प्रतिक्रमण का संक्षिप्त सूत्र “मिच्छामि दुक्कड़म्" है अर्थात् मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों - ऐसा बोध होना। दूसरे शब्दों में अपनी भूल को सुधार कर पुनः उसे न करने की प्रतिज्ञा ही प्रतिक्रमण है।
११ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/८ । ११६ पंचाशक /६/३ । १२० (क) स्थानांग
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