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अन्तर्गत माना है। शुभकर्मों के बन्ध का तथा मोक्ष सुख का हेतु होने से इस तप को सुखावह कहा गया है। परन्तु यह तप सुखावह होते हुए भी इसका अनुष्ठान तो कठिन ही है; अतः इसका आचरण आत्मार्थी साधक द्वारा ही सम्भव है। इस तप से सहिष्णुता का विकास होता है, शारीरिक व्याधियों को समभाव से सहने की शक्ति मिलती है। इस प्रकार यह तप अप्रमत्तभाव की साधना है।
६. विविक्तशयनासन (प्रतिसंलीनता) : वर्तमान में प्रचलित प्रतिसंलीनता तप को उत्तराध्ययनसूत्र में विविक्तशयनासन के नाम से अभिहित किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इसे विविक्तशयनासन ही कहा गया है। इसका लक्षण करते हुए कहा गया है कि एकान्त, अनापात, अर्थात् लोगों के आवागमन तथा स्त्री, पशु जीवादि से रहित स्थान पर शयन और आसन करना विविक्तशयनासन तप है।
औपपातिकसूत्र में विविक्तशयनासन' को प्रतिसंलीनता का अवान्तर भेद माना गया है । इसके अनुसार प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है16 :
१. इन्द्रियप्रतिसंलीनता : इन्द्रिय-विषयों के सेवन से बचना। २. कषायसंलीनता : क्रोधादि की प्रवृत्तियों से बचना। ३. योगसंलीनता : मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों से बचना। ४. विविक्तशयनासन : एकान्त स्थान पर सोना या बैठना।
उत्तराध्ययनसूत्र में बाह्य तपों की गणना में इस तप को 'संलीनता कहा गया है फिर भी विविक्तशयनासन को प्रमुखता देने के पीछे सूत्रकार का आशय यह है कि एकान्त स्थान में रहने से विषय-कषाय एवं राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाले बाह्य निमित्तों का योग न मिलने से आत्मा का उन से स्वतः बचाव हो जाता है । अतः विविक्तशयनासन के पालन में अन्य तीन प्रति संलीनताओं का पालन स्वतः हो जाता है। इसमें विविक्तशयनासन को प्रमुखता दी गई है। इससे उत्तराध्ययनसूत्र की प्राचीनता भी सिद्ध होती है। लेकिन वर्तमान में
- (नमिचन्द्राचार्य)।
११३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३००० ११४ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/२८ । ११५ तत्त्वार्थ सूत्र - ६/१६ | ११६ औपपातिक सूत्र - ३७ १५७ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/८ ।
- (उवंगसुत्तणि, लाडनूं खंड १, पृष्ठ २३) ।।
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