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१. ये बाह्य द्रव्यों के त्याग की अपेक्षा रखते हैं अर्थात् इनमें अशन, पान आदि बाह्य वस्तुओं का त्याग होता है; २. सामान्य साधक भी इसकी आराधना कर सकते हैं; ३. इनका प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर अधिक होता है; ४. ये मुक्ति के बहिरंग हेतु हैं।
तप को आभ्यन्तर-तप कहने के भी निम्न चार हेत हैं
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१.. इनमें बाह्य द्रव्यों के त्याग की अपेक्षा नहीं होती २. ये विशिष्ट साधक के द्वारा ही आचरित होते हैं ३. इनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तरंग में होता है और ४. ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं।
संक्षेप में जिस तप में बाह्य द्रव्य एवं बाह्य क्रिया की प्रधानता रहती है वे बाह्य तप हैं तथा जिसका सम्बन्ध मानसिक प्रवृति एवं आन्तरिक शुद्धि से है वें आभ्यन्तर तप हैं । यहां विशेष ज्ञातव्य यह है कि बाह्य तप आन्तरिक तप में सहायक होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इन दोनों के छ:-छः प्रकार बतलाये हैं।
बाह्य तप के छ: प्रकार ये हैं:- १. अनशन २. ऊणोदरी ३. भिक्षाचर्या ४.रसपरित्याग ५. कायक्लेश और ६. प्रतिसंलीनता।
१. अनशन : अनशन का अर्थ है आहार न करना। न अशनं इति अनशनं - आहार के त्याग को अनशन कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इसके दो भेद बतलाये गये हैं : (क) इत्वरिक (ख) यावत्कथिक।100
(क) इत्वरिक अनशन : यह एक निश्चित समयावधि के लिए किया हुआ आहार का त्याग है जो एक दिन से लगाकर छ: मास तक का होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में संक्षेप में इसके भी छ: प्रकार हैं:- १. श्रेणितप २. प्रकारतप ३. घनतप ४. वर्गतप ५. वर्गवर्गतप और ६. प्रकीर्णतप।101
(ख) यावत्कथिक अनशन : इसमें जीवन पर्यन्त आहार का त्याग किया जाता है। वस्तुतः जब शरीर संयम साधना के योग्य न रहे, वह अन्य के लिये भार रूप बन जाये और जीवन का अन्त सन्निकट हो, तब शरीर पर से ममत्व का विसर्जन करने हेतु यावत्कथिक अनशन व्रत ग्रहण किया जाता है।
१०० उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/६|
१०१ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/१०,११ । Jain Education International
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