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________________ ३२६ 'तपोमार्गगति' नामक अध्ययन में तप के स्वरूप एवं महत्त्व का विस्तृत विवेचन किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है। तप पूर्व संचित कर्मों को क्षय करने का एक मात्र उपाय है। तप से रागद्वेष जन्य पापकर्मों को क्षीण किया जाता है। इसमें कहा गया है कि तप के द्वारा ही महर्षिगण पूर्वकृत पापकर्मों को नष्ट करते हैं। इसके बारहवें अध्ययन में तप को ज्योति रूप बतलाया है अर्थात् तप में कर्मकालिमा को दूर कर देने की शक्ति है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार तप जीवन शुद्धि एवं आत्म विकास का श्रेष्ठ साधन हैं। . उत्तराध्ययनसूत्र में तप को व्यापक अर्थ में स्वीकार करते हुए अनेक . स्थलों पर उसे संयम का पर्यायवाची भी माना है। इस सन्दर्भ में यह कहा गया है कि निषेधात्मक दृष्टि से तृष्णा, राग-द्वेष आदि चित्त की समस्त अकुशल (अशुभ) वृत्तियों का निवारण एवं विधेयात्मक दृष्टि से सभी कुशल (शुभ) वृत्तियों एवं क्रियाओं का सम्पादन 'तप' है।” तप की यह सार्थक परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तर्गत वर्णित तप के बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों ही रूपों को प्रकाशित करती है। अशुभ से निवृत्ति हेतु अनशन, ऊणोदरी, भिक्षाचर्या (वृत्तिसंक्षेप), रसपरित्याग, कायक्लेश. • संलीनता, प्रायश्चित्त तथा कायोत्सर्ग की उपयोगिता है; ये तप के निषेधात्मक पहलू हैं। विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय तथा ध्यान शुभ में प्रवृत्ति के माध्यम हैं। ये तप के विधेयात्मक पहलू हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तर्गत तप के मुख्यतः दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं- १. बाह्य तप २. आभ्यन्तर तप। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार स्वरूप एवं पुरुषार्थ की अपेक्षा से तप के बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं। इनको इस रूप में वर्गीकृत करने में मुख्यतः चार हेतु तप को बाह्य तप कहने के चार हेतु निम्न हैं: ..६५ उत्तराध्ययनसूत्र ३०/६ । ६६ उत्तराध्ययनसूत्र १२/४४ । ६७ जैन बौख और गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन - भाग २ पृष्ठ ११७ । १८ उत्तराध्ययनसूत्र - ३०/६ । . ६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ६०० - (शान्त्याचार्य) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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