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चारों कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इस चारित्र का फल मोक्ष की प्राप्ति बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जीव यथाख्यातचारित्र के पालन से आत्मा को विशुद्ध बना करके वेदनीय आदि चारों अघाती कर्मों का भी क्षय कर देता है और उसके बाद सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में चारित्रसम्पन्नता के मुख्यतः तीन लाभ बतलाए गये हैं
. १) शैलेशी भाव की प्राप्ति २) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म का क्षय ३) सिद्ध, बुद्ध और मुक्तदशा की प्राप्ति। उत्तराध्ययन की टीका में शैलेशीभाव के निम्न अर्थ किये गये है:
शैलेश अर्थात मेरूपर्वत की भांति मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का पूर्णतः स्थिरीकरण शैलेशीभाव है। शैलेशीभाव में स्थित आत्मा परिस्थितियों से अप्रभावित होता है; वह ज्ञाता द्रष्टा भाव में स्थित रहता है। शैलेशी का संस्कृत रूप शैलर्षि भी किया जाता है जो ऋषि शैल अर्थात् पर्वत की तरह सुस्थिर होता है वह शैलर्षि कहलाता है। शील का एक अर्थ समाधान भी किया जाता है । जिस व्यक्ति को पूर्ण समाधान अर्थात् ज्ञान मिल जाता है, पूर्ण संवर की उपलब्धि हो जाती है, वह शील का ईश होता है। शीलेश की अवस्था को शैलेशी अवस्था कहा जाता है।
६.६ सम्यक्तप
- तप-साधना भारतीय संस्कृति का प्राण है। सभी आध्यात्मिक दर्शन तप को साधना का अपरिहार्य अंग मानते हैं। वैसे तो पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही देशों की धार्मिक साधना-प्रणाली तप से ओत-प्रोत रही है। इन विभिन्न साधना पद्धतियों में स्वीकृत तप के स्वरूप एवं प्रक्रिया में भिन्नता अवश्य है, पर तप का महत्त्व सभी के द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकृत है। .
बौद्धपरम्परा के समाधिमार्ग तथा गीता के ध्यानयोग की तरह जैनदर्शन में तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक्तप को साधना के अन्तिम चरण के रूप में स्वीकार किया गया है। साथ ही इसके तीसवें
६३ उत्तराध्ययनसूत्र २६/६२ । ६४ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५६३
- (शान्त्याचार्य)।
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