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________________ ३२४ (२) क्षायिकसम्यक्त्व इसमें दर्शनसप्तक सातों कर्म प्रकृतियों का पूर्ण क्षय हो जाता है। कर्म प्रकृतियों के क्षय से हुआ यथार्थ श्रद्धान स्थायी होता है अर्थात् यह प्रकट होने पर पुनः नष्ट नहीं होता है और अन्ततः यह मुक्ति का कारण बनता है। यह आत्मिक विकास की विशिष्ट अवस्था है । (३) क्षायोपशमिकसम्यक्त्व उदयगत कर्मप्रकृत्तियों का क्षय तथा सत्तागत कर्मप्रकृतियों के उपशमन से जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, वह क्षयोपशमिकसम्यक्त्व है। इसका समय छासठ सागरोपम से कुछ अधिक माना गया है। (४) सास्वादनसम्यक्त्व एक बार सम्यक्त्व रस का पान करने पर साधक जब पुनः मिथ्यात्व की ओर उन्मुख होता है तो सम्यक्त्व के वमन की इस क्षणिक अवधि में जो सम्यक्त्व का आस्वाद शेष रहता है, उसे सास्वादनसम्यक्त्व कहा जाता है। जैसे, वमन के पश्चात् भी वमित पदार्थों का कुछ समय तक स्वांद रहता है वैसे ही सम्यक्त्व के वमन के पश्चात् कुछ समय तक उसका आस्वाद रहता है, यह सास्वादनसम्यक्त्व है। (५) वेदकसम्यक्त्व सत्ता में रहे हुए सम्यक्त्व मोहनीयकर्म को उदय में लाकर क्षय करने के समय होने वाला वेदन वेदकसम्यक्त्व है। वेदकसम्यक्त्व के बाद जीव क्षायिकसम्यक्त्व को उपलब्ध कर लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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