SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२३ ३. दीपकसम्यक्त्व : यह सम्यक्त्व दीपक की तरह होता है जो अन्य को तो प्रकाशित करता है किन्तु स्वयं अपने अन्दर का अन्धकार दूर नहीं कर पाता है। कहा जाता है कि 'दिया तले अन्धेरा'; उसी प्रकार इस सम्यक्त्व में व्यक्ति अपने उपदेश द्वारा दूसरों को सन्मार्ग का अनुगामी बना देता है पर स्वयं सन्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता है। यह सम्यक्त्व परोपकारी है; 'पर' की अपेक्षा से इसे सम्यकत्व में परिगणित किया गया है। • सम्यकत्व का एक वर्गीकरण कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम की अपेक्षा से भी किया गया है । यद्यपि इसकी चर्चा उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध नहीं होती है फिर भी यह वर्गीकरण वर्तमान में अति प्रचलित है। अतः इसकी चर्चा यहां अपेक्षित है। इस वर्गीकरण का आधार मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह, सम्यक्त्वमोह तथा अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सम्यक्त्व विरोधी सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम है। मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त सात प्रकृतियों को 'दर्शनसप्तक' भी कहा जाता है । (१) औपशमिकसम्यक्त्व _ 'दर्शनसप्तक' के उपशमन से प्रकट होने वाला सम्यक्त्व औपशमिक सम्यकत्व. कहलाता है। यह अल्पकालिक होता है; शास्त्रीय दृष्टि से इसका अधिकतम समय अन्तर्मुहूर्त है। इसमें उपशमित कर्मप्रकृतियां पुनः जाग्रत होकर सम्यकत्वगुण को नष्ट कर देती हैं। मनोविज्ञान की भाषा में यह दमन की स्थिति है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy