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दर्शनाचार के रूप में श्रद्धा हमारे आचरण का विषय बन जाती है। विशेषावश्यकभाष्य । में सम्यकत्व का त्रिविध वर्गीकरण उपलब्ध होता है -
१. कारकसम्यक्त्व :
____ जो सम्यक्त्व मुक्ति का कारक हो वह कारकसम्यक्त्व है। इस अवस्था में व्यक्ति मात्र सत्य को जानता ही नहीं है, अपितु उसका आचरण भी करता. है। कारकसम्यक्त्वी व्यक्ति के जीवन में ज्ञान और आचरण की एकरूपता होती है। व्यक्ति सदाचरण की दिशा में पुरूषार्थ करता है। इसलिए कारक़ सम्यक्त्व क्रिया रूचि सम्यक्त्व भी कहा जाता है।
२. रोचकसम्यक्त्व :
सत्यासत्य का बोध होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना रोचकसम्यक्त्व है। इसमें व्यक्ति धर्म के यथार्थ स्वरूप का अनुभव करता है, फिर भी चारित्रमोहनीयकर्म के प्रभाव से सम्यक् आचरण नहीं कर पाता है। इस सन्दर्भ में दुर्योधन के ये वचन स्मरणीय है कि धर्म को जानते हुए भी मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती है एवं अधर्म को जानते हुए भी मेरी उससे निवृत्ति नहीं होती है -
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति जानामि अधर्म न च मे निवृत्ति
यही बात उत्तराध्ययनसूत्र के तेरहवें अध्ययन में चक्रवर्ती सम्भूति के द्वारा कही गई है कि धर्म को जानते हुए भी मैं कामभोगों में आसक्त होकर, उन्हें छोड़ नहीं सकता हूं।
५१ विशेषावश्यकभाष्य - २६७५ ।।
८२ उत्तराध्ययनसूत्र - १३। Jain Education International
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