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उन्हें सन्मार्ग में स्थिर करना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन विकृति से ग्रस्त रथनेमिमुनि को राजीमति द्वारा संयम-मार्ग में पुनः स्थिर करने का उल्लेख है।"
७. वात्सल्य :
___ साधर्मिक के प्रति स्नेहभाव रखना वात्सल्य है। 'वात्सल्य' धर्म के प्रति विशेष प्रीति भाव होने पर ही हो सकता है। जैसे गीत के शौकीन को गायक, फिल्म के शौकीन को अभिनेता/अभिनेत्री और क्रिकेटप्रेमी को क्रिकेटर, प्रिय लगता है वैसे ही धर्मप्रेमी को अन्य धार्मिकजन भी अतिप्रिय लगते हैं । वात्सल्यगुण का संघ एवं समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
८. प्रभावना:
धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए प्रयत्न करना 'प्रभावना' है। अमृतचन्द्राचार्य के शब्दों में सम्यग्दृष्टि जीव रत्नत्रय की साधना से स्वयं की आत्मा को प्रभावित करता ही है साथ ही दया-दान, तप-जप, जिनपूजा आदि सदाचरणों के द्वारा अन्य प्राणियों को भी धर्ममार्ग की ओर आकर्षित करता है। प्रभावना में साधक तप-त्याग, संयम की सुरभि से स्वयं सुवासित होते हुए दूसरों को भी सुरभित करता है।
प्रभावना का एक अर्थ यह भी किया गया है कि अन्य लोगों में व्याप्त जिनधर्म विषयक अज्ञान को दूर कर उन्हें धर्म का वास्तविक ज्ञान कराना प्रभावना है। संक्षेप में, जिनशासन के महात्म्य को संसार के समक्ष, प्रस्तुत करना प्रभावना है।
. सम्यक्त्व के पूर्वोक्त आठ अंगो को उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में दर्शनाचार कहा गया है । इससे यह प्रतिफलित होता है कि दर्शन शब्द मात्र श्रद्धा का प्रतीक ही नहीं है वरन् श्रद्धा के अनुरूप जीवन जीने का भी सूचक है। अर्थात्
७८ उत्तराध्ययनसूत्र - ४६ । ७६ पुरुषार्थसियुपाय - ३०। ८० रत्नकरण्डक श्रावकाचार - १८
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