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उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकारों के अनुसार 'अन्य दार्शनिकों की अनेक प्रकार की ऋद्धि, पूजा, समृद्धि तथा वैभव को देखकर जो आकर्षित नहीं होता वह अमूढदृष्टि है।' निशीथसूत्र में भी अमूढदृष्टि का यही अर्थ किया गया है।"
जैन साहित्य में मूढ़ता के निम्न तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं - -
क. देवमूढ़ता ख. लोकमूढ़ता ग. समयमूढ़ता। क. देवमूढ़ता :
जिसमें आराध्य अथवा आदर्श बनने की योग्यता नहीं है उसे आराध्य, बना लेना देवमूढ़ता है तथा काम-क्रोधादि विकारों के पूर्ण विजेता वीतराग परमात्मा को अपना आदर्श और आराध्य न मानना देव के प्रति अमूढ दृष्टि है। ख. लोकमूढ़ता :
लोक-परम्परा एवं रूढ़ियों का अन्धानुसरण लोकमूढ़ता है। आचार्य समन्तभद्र "रत्नकरण्डकश्रावकाचार' में लिखते हैं - 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों के ढेर के द्वारा स्तूप बनाकर उससे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जन करना आदि लोकमूढ़तायें हैं। . . . सम्यग्दृष्टि जीव में ऐसी अन्धप्रवृत्ति नहीं होती है। वह प्रत्येक क्रिया का श्रेय एवं प्रेय की अपेक्षा से विचार करता है तथा प्रेय का त्याग कर श्रेय की ओर ही अग्रसर होता है। यही उसकी अमूढदृष्टि है। इस सन्दर्भ में लौकिक कर्मकांडों का आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - 'धर्म जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्ति तीर्थ है, विशुद्ध भाव पवित्र घाट है, जिसमें स्नान करने
७० (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २७६३ (भावविजय जी)।
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २७६५ (नेमिचन्द्राचार्य) । (ग) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८०६ (शान्त्याचार्य) ।
(घ) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८१३ (लक्ष्मीवल्लभमणि । : (ड) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८१३ (कमलसंयम उपाध्याय) । ७१ निशीथ सूत्र गाथा - २६ ।। ७२ रत्नकरण्डकश्रावकाचार - पृष्ठ ५६ । ७३ रत्नकरण्डक श्रावकाचार - गाथा २२
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