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३. निर्विचिकित्सा :
___ उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में विचिकित्सा के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं : १. फल के प्रति सन्देह और २. साधु के प्रति घृणा। धर्मक्रिया या साधना के फल के प्रति आशंका करना या मेरी धर्म क्रिया कहीं व्यर्थ न चली जाय इस प्रकार का विचार करना विचिकित्सा है। इसके विपरीत शुभ क्रिया कभी व्यर्थ नहीं जाती। सदाचरण अवश्य फलदायी होता है, क्योंकि क्रिया एवं फल · का अविनाभावी सम्बन्ध है। ऐसी दृढ़श्रद्धा निर्विचिकित्सा है। किसी ने ठीक कहा है:
'निष्फल होवे भामिनी, पादपनिष्फल होय, करणी के फल जानना, कभी न निष्फल होय' -
अर्थात् करणी कदापि बन्ध्या नहीं हो सकती, उसका फल अवश्य मिलता है - ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिये। विचिकित्सा का दूसरा अर्थ संयमी मुनि के दुर्बल, जर्जर शरीर एवं मलिन वस्त्रों के प्रति हीनभाव/घृणाभाव लाना है। इस अर्थ के सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - "स्वभाव से अपवित्र शरीर की पवित्रता का आधार तो रत्नत्रय अर्थात् सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र रूप सदाचरण है। अतः गुणीजनों के शरीर से घृणा न करके उनके गुणों के प्रति श्रद्धा रखना निर्विचिकित्सा है । 'मुनि की वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य रूप पर दृष्टि को केन्द्रित न करके उसके आत्मसौन्दर्य पर केन्द्रित करना ही सच्ची निर्विचिकित्सा
४. अमूढदृष्टि :
मूढ़ता का अर्थ अज्ञान है। हेय, ज्ञेय और उपादेय अथवा उचित अनुचित के विवेक का अभाव मूढ़ता है और मूढ़ता रहित दृष्टि अमूढ दृष्टि कहलाती है। जैसे मूर्खजन सोने एवं पीतल को एक समान समझते हैं, इसी प्रकार कई लोग सभी धर्मों को एक समान मान लेते हैं, किन्तु वीतराग द्वारा प्ररूपित अहिंसामय धर्म एवं अनेकान्तमय तत्त्व दर्शन सर्वोत्कृष्ट है इस प्रकार की शुद्ध दृष्टि रखना अमूढदृष्टि है।
- (भावविजय जी)।
६७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र - २६१३ ६८ रत्नकरण्डक श्रावकाचार्य श्लोक-१३ ।
६६ जैन, बौद्ध और गीता के भाचारदर्शन का तुलनात्मक दर्शन - भाग २, पृष्ठ ६२ ।
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