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________________ ३१७ सत्य मानना निःशंकता है। साधना के क्षेत्र में संशयशीलता विघ्नकारक है। गीता में कहा गया है - संशयात्मा विनश्यति -संशयग्रस्त आत्मा संसार में ही भवभ्रमण करता रहता है अर्थात् वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता है । अतः जैनसाधना में साधक के लिये दृढ़ श्रद्धा होना आवश्यक है। ध्यान रहे कि यह निःशंकता प्रज्ञा एवं तर्क की विरोधी नहीं है। जिज्ञासामूलक तर्क या शंका औचित्यपूर्ण है पर शंका को ही साध्य बना लेना अनुचित है। ___ उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में शंका के निम्न दो भेद किये गये हैं- १ देशशंका - आंशिकसन्देह २ सर्वशंका - पूर्णसन्देह। देशशंका वस्तुतः मिश्रदृष्टि की परिचायक है, जब कि सर्वशंका मिथ्यादृष्टि का ही एक रूप है। २ निष्कांक्षिता : सामान्यतः कांक्षा का अभाव निष्कांक्षिता है। जैनदर्शन के अनुसार साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव, इहलौकिक या पारलौकिक सुख को लक्ष्य बनाना कांक्षा है। जैनसाधना में कामनापूर्वक साधना का स्पष्ट निषेध है। आचारांगसूत्र में तो . यहां तक कहा गया है कि जो व्यक्ति दुःखविमुक्ति और जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए भी आश्रव का सेवन करता है या कोई आरम्भ करता है तो वह उसकी अज्ञानता का प्रतीक है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा गया है कि किसी सांसारिक सुख की आकांक्षा नहीं रखना सम्यग्दर्शन का निःकांक्षित गुण है। आचार्य अमृतचंद्र ने पुरूषार्थसिद्धयुपाय में निष्कांक्षिता का अर्थ एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना किया है। इस आधार पर अनाग्रहयुक्त दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए . आवश्यक है। इस प्रकार निष्काम साधना ही वास्तविक साधना है । ६२ गीता - २/४। ६३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २७६३ (भावविजय जी) । (ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २७६५ (नेमिचन्द्राचार्य) । (ग) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८०१ (शान्त्याचार्य) । (घ) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८०६ (लक्ष्मीवल्लभ) । (ड) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २६१३ (कमलसंयम उपाध्याय)। ६४ आचारांग सूत्र - १/१/१० (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ५) । ६५ रत्नकरण्डक श्रावकाचार्य - श्लोक १२, पृष्ठ २६ । ६६ पुरुषार्थसिद्धिघुपाय - २४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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