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स्वतः प्रयोग के माध्यम से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है और दूसरा उस वैज्ञानिक के वचनों पर विश्वास करके उस वस्तु-स्वरूप को जानता है। दोनों ही दशाओं में व्यक्ति का बोध या दृष्टिकोण यथार्थ माना जायेगा। अन्तर उस यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त करने की प्रक्रिया में है। एक ने सत्य को स्वतः उपलब्ध किया है; दूसरे ने परोपदेशपूर्वक जाना है। यही बात आध्यात्मिक जगत में है। या तो व्यक्ति स्वयं यथार्थ दृष्टिकोण के माध्यम से तत्त्व का साक्षात्कार करे या आप्तपुरूषों के वचनों पर सम्यग् श्रद्धा रखकर तत्त्व का साक्षात्कार करे, दोनों में विशेष अंतर . ' नहीं है। उपलब्धि (तत्त्वसाक्षात्कार) के मार्ग अर्थात् निसर्गज और अधिगमज भिन्न अवश्य हैं, परन्तु उपलब्धि एक है। अन्तिम स्थिति तो तत्त्वसाक्षात्कार ही है। इस ... तथ्य के स्पष्टीकरण में पण्डित सुखलालजी के विचार ज्ञातव्य हैं - 'तत्त्वश्रद्धा ही. सम्यग्-दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है। अन्तिम अर्थ तो तत्त्वसाक्षात्कार है; तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्व साक्षात्कार का सोपान मात्र है । वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरूषार्थ से तत्त्वसाक्षात्कार होता है। ये भेद बाह्य कारण की अपेक्षा से हैं; अन्तरंग कारण तो इन दोनों भेदों में सात प्रकृतियों का क्षय अथवा उप्रशम है।
उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंगों का वर्णन . किया गया है। इन आठ अंगों का पालन सम्यग्दर्शन की सुरक्षा एवं विशुद्धि के लिये अत्यावश्यक है। ये आठ अंग इस प्रकार है - १) निःशंकित २) निःकांक्षित ३) निर्विचिकित्सा ४) अमूढदृष्टि ५) उपबृंहण ६). स्थिरीकरण ७) वात्सल्य और ८) प्रभावना।
१) निःशंकता :
'संशयकरणं शंका' अर्थात् संशय करना शंका है। संशयशीलता का अभाव ही निःशंकता है। जिनप्ररूपित तत्त्वदर्शन में शंका नहीं करना, उसे यथार्थ एवं सत्य मानना निःशंकता है। साधना के क्षेत्र में संशयशीलता विघ्नकारक है। गीता में कहा गया है – संशयात्मा विनश्यति -संशयग्रस्त आत्मा संसार में ही भवभ्रमण
६१ निस्संकिय, निक्कंखिय, निविलिगिच्छा अमूद दिट्ठय।
उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।। ६२ गीता - २/४ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र २८/३१ ।
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