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प्रज्ञापना सूत्र में भी सम्यक्त्व के इन दस प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है। आत्मानुशासन में भी इन्हीं दस प्रकारों का वर्णन किया गया है किन्तु उसमें इनके नाम एवं क्रम में कुछ भिन्नता है।
_इस प्रकार हम देखते हैं कि निसर्ग रूचि, अभिगम रूचि, बीज रूचि, संक्षेपरूचि एवं विस्तार रूचि में स्वानुभूति के द्वारा सत्य का बोध होता है और उसके प्रति आस्था होती है, जब कि उपदेश रूचि, आज्ञारूचि, सूत्ररूचि, क्रिया रूचि, एवं धर्मरूचि में स्वानुभूति के स्थान पर परोपदेश पूर्वक जिन वचन के प्रति आस्था होती है। प्रज्ञापना सूत्रकार (श्यामाचार्य) ने उत्तराध्ययनसूत्र की इन गाथाओं को ज्यों का त्यों उद्धृत किया है। .
इन रूचियों का अति संक्षिप्त विभागीकरण आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में · १) निसर्गज और २) अधिगमज – ऐसे दो रूपों में किया है। निसर्गज अर्थात् नदी-पाषाण न्याय की तरह स्वतः कालक्रम में अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय या क्षयोपशम से होने वाला सम्यग्दर्शन निसर्गज कहलाता है। जैसे नदी में पड़ा हुआ पत्थर बिना प्रयास पानी के थपेड़े खाता हुआ स्वाभाविक रूप से गोल हो जाता है वैसे ही संसार-सागर के अनादि प्रवाह में भटकते हुये प्राणी को कषाय की मंदता के फलस्वरूप कर्मावरण की अल्पता के कारण जो सत्यानुभूति होती है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है जबकि अधिगमज सम्यग्दर्शन, गुरू उपदेश, जिन प्रवचन के अध्ययन आदि बाह्य निमित्तों के द्वारा प्राप्त होता है।
__ यहां यह ध्यातव्य है कि सामान्यतः सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है। सत्य को स्वयं जानने की अपेक्षा जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है, उनके
द्वारा बताये गये सत्य के स्वरूप को स्वीकार करने का मार्ग अर्थात् अधिगमज • ' सम्यग्दर्शन सहज है। इस अधिगमज सम्यग्दर्शन को उत्तराध्ययनसूत्र आदि शास्त्रों
में 'तत्त्वार्थश्रद्धान' कहा गया है। वस्तुतः ये दोनों सम्यग्दर्शन की उपलब्धि की विधियां हैं। अपने परिणामों की दृष्टि से इनमें कोई अंतर नहीं है । जैसे एक व्यक्ति किसी कार्यक्रम को अपनी आंखों द्वारा स्वयं देखता है तो दूसरा व्यक्ति उसी कार्यक्रम को दूरदर्शन (टेलीविजन) के माध्यम से देखता है अथवा एक वैज्ञानिक '
५ (क) स्थानांग - १०/१०४ - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ५१२) ।
(ख) प्रज्ञापना - १/१०४ - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ ३३) । ५ आत्मानुशासनम् श्लोक - ११, पृष्ठ १४ । ६० तत्त्वार्थ सुत्र - १/३।
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