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रूचियों का वर्णन उसकी उपलब्धि के निमित्त कारण की अपेक्षा से किया गया है। यहां ध्यातव्य है कि कार्य में कारण के उपचार से इन दस रूचियों को भी सम्यकत्व/सम्यग्दर्शन के रूप में स्वीकृत किया गया है, जो निम्नलिखित हैं१. निसर्गरूचि :
बिना किसी परोपदेश या बाह्य निमित्त के कषायों और वासनाओं की मन्दता के कारण सत्य के यथार्थस्वरूप का बोध होना निसर्गरूचि सम्यक्त्व है। दूसरे शब्दों में यह स्वाभाविक, स्वतः स्फूर्त, सत्यानुभूति एवं सम्यग् श्रद्धा है। २.. उपदेशरूचि :
वीतराग वाणी या सदुपदेश के द्वारा सत्य के स्वरूप को जानकर उसमें आस्था या विश्वास का होना उपदेशरूचि सम्यक्त्व है। ३. आज्ञारूचि : .
राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदि से पूर्ण मुक्त वीतराग आप्त पुरूष की आज्ञा पालन में रूचि रखना आज्ञा रूचि सम्यक्त्व है। दूसरे शब्दों में गुरू आज्ञा के अनुसार आचरण करने वाली आत्मा में उस अनुष्ठान के प्रति जो रूचि होती है वह आज्ञारूचि है। ४. सूत्ररूचि :
श्रुत् अर्थात् अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम साहित्य द्वारा उपलब्ध होने वाला यथार्थ दृष्टिकोण या शुद्ध श्रद्धा सूत्ररूचि सम्यक्त्व है।" पुनः-पुनः सूत्रों का अध्ययन करने से ज्ञान संशय रहित होता है अतः सूत्रज्ञान से प्रगट हुई ऐसी रूचि सूत्ररूचि कहलाती है। ५. बीजरूचि : - आंशिक सत्यानुभूति को स्वयं के चिंतन के द्वारा विकसित करना बीजरूचि सम्यक्त्व है, जैसे तेल की एक बूंद पानी पर फैलती चली जाती है उसी प्रकार बीजरूचि सम्पन्न व्यक्ति का सम्यग्दर्शन विस्तृत होता चला जाता है।
४८ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/१७,१८ । ४६ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/१६ | ५० उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२० । ५१ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२१ । ५२ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२२ ।
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