________________
३१२
सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाकांक्षा से रहित होने से शुद्ध होंगे। संक्षेप में जहां सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति का सम्पूर्ण पुरूषार्थ मुक्ति का कारण होता है वहीं मिथ्यादृष्टि का पुरूषार्थ बन्धन का कारण होता है।" इस सन्दर्भ में मनुस्मृति में भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बन्धन नहीं होता है लेकिन सम्यगदर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है।42.
बौद्धदर्शन में भी मिथ्या दृष्टिकोण को संसार का किनारा एवं सम्यग् दृष्टिकोण को निर्वाण का किनारा माना गया है। सम्यग्दर्शन के श्रद्धापरक अर्थ के सन्दर्भ में गीता में भी कहा गया है कि श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम् अर्थात् श्रद्धावान् ही ज्ञान को प्राप्त करता है। आध्यात्मयोगी आनन्दघनजी लिखते है कि जिस प्रकार राख पर लीपना व्यर्थ है उसी प्रकार शुद्ध श्रद्धा. के बिना समस्त क्रिया व्यर्थ है।' इसीलिये 'सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा जाता है। 45
___ वस्तुतः सम्यग्दर्शन एक जीवनदृष्टि है जिसके आधार पर चारित्र का निर्माण होता है । तभी उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि चारित्र से पूर्व सम्यक्त्व का होना अनिवार्य है। इसमें एक ओर सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वश्रद्धा करते हुए उसे सम्यग्दर्शन का पर्यायवाची माना है वहां दूसरी ओर सम्यक्त्व को यथार्थता, उचितता या सत्यता के व्यापक अर्थ में भी प्रस्तुत किया गया है। इसका प्रमाण उत्तराध्ययनसूत्र का उनतीसवां सम्यक्त्व-पराक्रम' अध्ययन है। .
सम्यग्दर्शन के प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की हेतुभूत दस रूचियों का वर्णन किया गया है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सम्यग्दर्शन की उपलब्धि में सत्याभीप्सा (रूचि) की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सम्यक्त्व के इन दस प्रकारों
४१ सूत्रकृत्तांग - १/८/२३,२४
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३१३) । ४२ मनुस्मृति - ६/७४ । ४३ अंगुत्तरनिकाय १०/१२
- (उद्धृत-जैन बोध और गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन)। ४४ गीता - १७/३ । ४५ आनन्दधन चौवीशी-स्तवन । ४६ जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, द्वि. भाग, पृष्ठ ५१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org