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सम्यग्दर्शन की व्यावहारिक पहचान
सम्यग्दर्शन आन्तरिक शुद्धि का विषय है। फिर भी इसके अवबोध हेतु पहचान के कुछ व्यवहारिक लक्षण उत्तराध्ययनसूत्र में बतलाए गए हैं:१) परमार्थ संस्तव : परम तत्त्व का संस्तवन । २) सुदृढ़ परमार्थ सेवन : परम तत्त्व के उपासक के सान्निध्य में रहकर
सत्य का आचरण करना। ३) कुदर्शनवर्जन : कुमार्ग अर्थात् मिथ्यादर्शन से दूर रहना।
संक्षेप में परमार्थ को जानकर, तद्नुसार आचरण करने वाला और मिथ्यात्व से विरत होने वाला व्यक्ति ही सम्यग्दृष्टि है।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व मानव जीवन के व्यवहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यथार्थ दृष्टिकोण एवं सम्यगश्रद्धान के अभाव में जीवन की आध्यात्मिक विकास यात्रा असम्भव है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए इसे मोक्ष का मूल कारण माना गया है। इसके अट्ठाईसवें अध्ययन में कहा गया है कि दर्शन अर्थात् अनुभूति के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र प्राप्त नहीं होता और चारित्र के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता है; अत: साधना के क्षेत्र में दर्शन या श्रद्धा की अपरिहार्य आवश्यकता है। उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में दर्शन सम्पन्नता का फल बताते हुए सम्यक्त्व को . भवभ्रमण के मूल कारण मिथ्यात्व का नाश करने वाला बताया
- जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति के आचरण का आधार उसका दृष्टिकोण होता है। सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्टतः कहा गया है- व्यक्ति विद्वान है, भाग्यवान और पराक्रमी भी है; लेकिन उसका दृष्टिकोण मिथ्या या असम्यक् है, तो उसके दान, तप आदि समस्त पुरूषार्थ फलाकांक्षा युक्त होने से अशुद्ध होंगे; लेकिन इसके विपरीत
२८ 'परमत्थसंथववो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि । . वावन्नकुदसंणवज्जणा, य सम्मत्तंसद्दहणा ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२८ । ३६ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/३० ।
४० उत्तराध्ययनसूत्र - २६/६१ । Jain Education International
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