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________________ ३१० संसार मार्ग का विच्छेद करता है, अर्थात् मुक्ति को उपलब्ध करता है। (४) अनुकम्पा : अनुकम्पा शब्द अनु+कम्पन के योग से बना है; अनु अर्थात् तदनुसार एवं कम्पन अर्थात् अनुभूति है । इस प्रकार दूसरे व्यक्ति की अनुभूति का स्वानुभूति में बदल जाना अनुकम्पा है। दूसरे शब्दों में किसी प्राणी के दुःख से पीड़ित होने पर उसी के अनुरूप दुःख की अनुभूति का होना अनुकम्पा है। इसे. समानुभूति भी कहा जा सकता है। परोपकार की प्रवृत्ति मूलतः अनुकम्पा के सिद्धान्त पर आधारित है। अनुकम्पा से ही 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' का उद्घोष प्रस्फुटित होता है। अनुकम्पा की भावना के विकास के लिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 'विश्व के सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखें।" अनुकम्पा का माहात्म्य बताते हुए यह भी कहा गया है – 'सत्त्वं सर्वत्र चित्तस्य, दयार्द्रत्वं दयावतः धर्मस्य परमं मूलं, अनुकम्पा प्रवक्ष्यते। इस प्रकार अनुकम्पा को धर्म का मूल आधार माना गया है । . (५) आस्तिक्य : अस्ति भावं आस्तिक्यम् – 'अस्तित्व (सत्ता) में विश्वास रखने वाला आस्तिक होता है । आस्तिक के भाव को आस्तिक्य कहते हैं। आस्तिक के विषय में अनेक मान्यतायें प्रचलित हैं। कुछ विचारकों का मानना है कि ईश्वर के अस्तित्व या सत्ता में विश्वास रखने वाला आस्तिक है। अन्य कुछ का कहना है कि जो वेदों में आस्था रखता है वह आस्तिक है; लेकिन जैन दर्शन के अनुसार नवतत्त्व एवं षद्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करने वाला ही आस्तिक है। ___ अस्ति = है; शाश्वतरूप से 'है' - नवतत्त्व आदि में विश्वास रखना आस्तिक्य है। ३६ उत्तराध्ययनसूत्र २६/३ । ३७ उत्तराध्ययनसूत्र ६/२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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