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क्रोधादि कषाय ही वेग या आवेग हैं। इन्हें समभावपूर्वक सहन करना संवेग है। वस्तुतः मन में क्रोध आदि के भाव (वेग) आने पर उसकी प्रतिक्रिया नहीं करना ही संवेग (सम्यग्-वेग) है।
संवेग के मोक्षाभिलाषी अर्थ को स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचंद्र सूरि लिखते हैं- 'दिव्य देव सुखों को भी दुःख रूप मानना (जो यथार्थ में सुखाभास है किन्तु परिणामतः दुःखस्वरूप ही है) तथा एक मात्र मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है ऐसा मानकर एवं मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा रखना ही संवेग है।
संवेग शब्द का फल बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जीव संवेग से अनुत्तर धर्मश्रद्धा को उपलब्ध करता है तथा मिथ्यात्व से मुक्त होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि करता हैं। इस प्रकार दर्शन विशोधि (सम्यग् दृष्टि) से सम्पन्न जीव अपनी साधना से उसी भव में या तीसरे भव में अवश्य मुक्त होता है।
(३) निर्वेद :
यह सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में निर्वेद का निम्न अर्थ मिलता है : “विषयों से विरक्ति अर्थात् सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव निर्वेद है। निर्वेद साधना मार्ग में अग्रसर होने में अत्यन्त सहायक होता है। इससे निष्काम भावना तथा अनासक्त दृष्टि का विकास होता है।
. 'निर्गत वेद यस्मिन् स निर्वेदः' इस व्युत्पत्तिपरक व्याख्या के अनुसार'क्रोध आदि कषायों के वेदन का अभाव निर्वेद है। अर्थात् मन में भी क्रोध आदि से सम्बन्धित संकल्प विकल्प का अभाव होना निर्वेद है। उत्तराध्ययनसूत्र में निर्वेद का फल बताते हुए कहा गया है 'निर्वेद के प्रभाव से जीव आरम्भ का परित्याग कर
.३३ सम्यग्दर्शन पृष्ठ - २८४ ३४. उत्तराध्ययनसूत्र २६/२। ३५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र - ५७८
- (रामचन्द्रसूरि)। (शान्त्याचार्य)।
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