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(१) शम :
प्राकृत 'सम' शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनते है- (१) सम, (२) शम एवं (३) श्रम। सम अर्थात् समभाव, शम अर्थात् शमन करना या शान्त होना, श्रम अर्थात् पुरूषार्थ या प्रयत्न। ये तीनों ही शब्द सम्यग्दृष्टि जीव से सम्बन्ध रखते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्-दृष्टि के विषय में कहा गया है कि जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तथा मान-अपमान के प्रसंग में समभाव रखता है वह सम्यग-दृष्टि सम्पन्न है। इस बात की पुष्टि गीता से भी । होती है।
सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति विपरीत परिस्थिति में भी शान्त रहता है, विचलित नहीं होता है। वह विचार करता है कि जो कुछ भला-बुरा, लाभ-हानि, यश-अपयश मिलता है उसका प्रधान कारण मेरे ही पूर्वसंचित शुभाशुभ कर्म है, ऐसा विचार कर वह उद्वेलित नहीं होता है। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तर्गत अनाथी मुनि श्रेणिक महाराजा को कहते हैं : सुख दुःख का कर्ता तथा हर्ता (दूर करने वाली) स्वयं की आत्मा ही है। सुप्रवृत्ति में संलग्न स्वयं की आत्मा ही स्वयं की मित्र है एवं दुष्प्रवृत्ति में संलग्न स्वयं की आत्मा ही स्वयं की शत्रु है। जब वह सुप्रवृत्ति में रत होती है तो स्वयं की मित्र बन जाती है और जब वह दुष्प्रवृत्ति में रत होती है तो स्वयं की ही शत्रु बन जाती है। इस प्रकार विवेकपूर्वक कषायों को उपशान्त करना ही शम है।
आचार्य रामचंद्रसूरि के अनुसार आत्मा मिथ्या अभिनिवेश रूप दुराग्रह को छोड़कर सत्य का आग्रह रखना शम है ।' संयम साधना के क्षेत्र में पुरूषार्थ करना श्रम है और जो तप संयम आदि की साधना करता है वही श्रमण है। (२) संवेग :
उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकारों ने संवेग का अर्थ मोक्ष की अभिलाषा (रूचि) किया है। संवेग दो शब्दों के संयोजन से बना है सम्+वेग।
२६ उत्तराध्ययनसूत्र - १६/६०। ३० उत्तराध्ययनसूत्र - २०/३७ । ३१ सम्यग्दर्शन, पृष्ठ २८४ ३२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र - ५७७
- (रामचन्द्रसूरि)। - (शान्त्याचार्य)।
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