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के प्रति अनुष्ठान भाव रखने चाहिये। इस प्रकार देव, गुरू एवं धर्म में श्रद्धा रखना सम्यकत्व है।
यहां एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन में दर्शन शब्द के पूर्व सम्यग् शब्द नियोजित किया गया है। यह सम्यग् शब्द अंधश्रद्धा का निराकरण कर देता है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन दर्शन में दर्शन शब्द तत्त्वसाक्षात्कार, सामान्यबोध, अनुभूति, दृष्टिकोण, तत्त्वश्रद्धान आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
- अब हम मुख्य रूप से उत्तराध्ययनसूत्र के परिप्रेक्ष्य में सम्यग्दर्शन के. तत्त्वश्रद्धान परक अर्थ के स्वरूप एवं महत्त्व पर प्रकाश डालेंगे।
सम्यग्दर्शन का स्वरूपः
सम्यग्दर्शन के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाइसवें अध्ययन में कहा गया है कि अस्तित्त्ववान तत्त्वों अर्थात् जीवाजीवादि तत्त्वों के अस्तित्त्व का जो निरूपण है उसमें श्रद्धा करना ‘सम्यक्त्व' या सम्यग्दर्शन है।" पुनः दर्शनं शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए इसमें यह कहा गया है 'नाणेण जाणई भावं दंसणेण सदहे' अर्थात् ज्ञान से जीवादि तत्त्वों को जाने एवं दर्शन से उन पर श्रद्धा करे।
सम्यक्त्व के लक्षण : .. जैनदर्शन में सम्यक्त्व के गुण रूप पांच लक्षण स्वीकार किये गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में यद्यपि एक साथ इन पांचों का वर्णन उपलब्ध नहीं होता है फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में संवेग, निर्वेद आदि के प्रतिफल की चर्चा की गई है। ये पांच अंग निम्न है:
(१) शम (२) संवेग (३) निर्वेद (४) अनुकम्पा और (५) आस्तिक्य।
२६ पर्मसंग्रह प्रथम भाग, पृष्ठ । १७ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१५ । २ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/३५ ।।
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