SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ वैभिन्य प्राप्त होता है। इसकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्या भी तीन प्रकार से की गई है। ‘दृश्यते अनेन इति दर्शन, ‘पश्यति इति दर्शनम्, दृष्टिदर्शनम्' 122 इस प्रकार दर्शन शब्द के तीन अर्थ हुए (१) जिसके द्वारा देखा जाता है वह दर्शन है (२) देखना ही दर्शन है । दर्शन शब्द के ये दोनों अर्थ चाक्षुष - बोध के सूचक हैं (३) दृष्टिकोण ही दर्शन है । दर्शन शब्द का यह अर्थ दर्शन शास्त्र से सम्बंधित हैं। साधना के क्षेत्र में दर्शन शब्द तत्त्व साक्षात्कार या आत्मानुभूति का वाचक है, जबकि दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में 'दर्शन' शब्द जीवन एवं जगत के सम्बन्ध में. एक निश्चित दृष्टिकोण का सूचक है, जैसे भारतीयदर्शन, जैनदर्शन, बौद्धदर्शन, सांख्यदर्शन आदि। किन्तु सम्यग्दर्शन के क्षेत्र में दर्शन शब्द एक विशिष्ट अर्थ का द्योतक है । यहां इसका अर्थ है तत्त्वश्रद्धान | - - जैन साहित्य में दर्शन शब्द के अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं आचारांगसूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार, साक्षीभाव आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। साथ ही इसमें सम्यग्दृष्टि आत्मा के लिये आयतदर्शी, परमदर्शी, निष्कर्मदर्शी, अनन्यदर्शी आदि शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। हमारे शोधग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र के सन्दर्भ में दर्शन शब्द मुख्यतः श्रद्धापरक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य उमास्वाति ने भी 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं' कहकर दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धान किया है। 24 यही बात प्रकारान्तर से अभिधानराजेन्द्रकोश में कही गई है। 25 'जीवाजीवादि पदार्थों को जानना, देखना और इन पर दृढ़ श्रद्धा रखना ही दर्शन है।' इसी प्रकार धर्मसंग्रह के अनुसार जिनेश्वर परमात्मा द्वारा उक्त जीवाजीवादि तत्त्वों में निर्मल रूचि सम्यक्त्व है। r परवर्तीकाल में जैन साहित्य में प्रायः दर्शन शब्द देव- गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा और भक्ति के अर्थ में रूढ़ हो गया। सम्यक्त्व की यह व्याख्या मुख्यतः गृहस्थ-श्रावक की अपेक्षा से कही गई है अर्थात् श्रावक को अरिहंतदेव के प्रति पूज्य भाव, गुरूवर्ग के प्रति सेवा - भक्ति के परिणाम तथा धर्मतत्त्व २२ तत्त्वार्थभाष्य - पृष्ठ १६ । २३ आचारांग - ३/२/२८ (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ २६ । २४ तत्त्वार्थसूत्र - १/१ । २५ अभिधानराजेन्द्रकोश, खंड ५, पृष्ठ २४, २५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy