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का संयोग सम्बन्ध है, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं । देह से आत्मा की भिन्नता प्रदर्शित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है, महर्षि इसे पार कर जाते हैं। इस गाथा के पीछे सूत्रकार का यह आशय है कि जीव जब यह बोध कर लेता है कि शरीर साधन है; आत्मा साधक है अर्थात् देह एवं आत्मा भिन्न है तो देहासक्ति से मुक्त होकर वह आत्मज्ञानी (सम्यग्ज्ञानी) हो जाता है।
इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का लक्ष्य देह से आत्मा की भिन्नता को प्रतिपादित करके आत्मस्वरूप को उपलब्ध कराना है। उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन में सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में पंचविध ज्ञान - श्रुतज्ञान, मतिज्ञान; अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान की चर्चा की गई है। चूंकि. हम इसी ग्रन्थ के तृतीत अध्याय में ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत इनकी विस्तृत चर्चा कर चुके हैं अतः सम्यग्ज्ञान की चर्चा को हम यहीं विराम देना उचित समझते हैं।
६.४ सम्यग्दर्शन
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का महत्त्वपूर्ण सोपान है। सम्यग्दर्शन शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है और वह जैनदर्शन में कालक्रम में, किन-किन अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है, यह एक विचारणीय विषय है। इसके साथ ही इसके स्वरूप एवं महत्त्व की विवेचना भी अपेक्षित है। '
सम्यगदर्शन का स्वरूप :
. सम्यग्दर्शन दो शब्दों के योग से परिनिष्पन्न हुआ है – सम्यग्द र्शन। इसमें सम्यग् शब्द व्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न दोनों ही अवस्था में प्रशंसा, औचित्य या यथार्थता. का वाचक है। यह शब्द सम्पूर्वक अञ्च धातु से सम्पन्न हुआ है। दर्शन शब्द चिरपरिचित एवं प्रचलित शब्द है फिर भी विभिन्न सन्दर्भो में इसके अर्थ में
२० उत्तराध्ययनसूत्र - २३/७३ । २१ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/४ ।
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