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सम्यग्ज्ञान क्या है ? आत्मोपलब्धि या आत्मविशुद्धि का कारणभूत 'ज्ञान' सम्यग्ज्ञान है। जैन आगम साहित्य में ज्ञान की सत्यता/प्रामाणिकता एवं असत्यता/अप्रामाणिकता का निर्णय दो आधार पर किया गया है । पहला आधार सामान्य साधकों की अपेक्षा से किया गया है: 1. तीर्थकरों के उपदेश रूप गणधर प्रणीत जैनागमों में वर्णित नवतत्त्वों आदि क ज्ञान यथार्थ ज्ञान है और शेष ज्ञान मिथ्याज्ञान है। इससे सिद्ध होता है कि आप्तवचन ही सम्यगज्ञान है । यहां ज्ञातव्य है कि राग-द्वेष से मुक्त वीतराग आत्मा आप्त कहलाती है। 2. सम्यग्ज्ञान की दूसरी कसौटी विशिष्ट साधक के आधार पर की जाती है । सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति का ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति दुराग्रह एवं दुरभिनिवेश से मुक्त हैं उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
सम्यग्ज्ञान के प्रथम पहलु की ओर दृष्टिपात करने पर यह भ्रम हो सकता है कि जैनदर्शन के अनुसार मात्र जैनागम का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और इनके अतिरिक्त अन्य शास्त्रों का ज्ञान मिथ्याज्ञान है, किन्तु ऐसा नहीं है। नन्दीसूत्र में इस सन्दर्भ में स्पष्टतः कहा गया है: 'यथार्थ दृष्टिकोण वाले (सम्यग्दृष्टि) के लिए मिथ्याश्रुत (जैनेतर ग्रन्थ) भी सम्यग् श्रुत रूप होता है जबकि अयथार्थ दृष्टिकोण वाले (मिथ्यादृष्टि) के लिए सम्यग् श्रुत भी मिथ्याश्रुत बन जाता है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्म – अनात्म का विवेक या भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। यहां प्रश्न हो सकता है कि आत्मस्वरूप को कैसे जाना जा सकता है क्योंकि आत्मा तो अमूर्त है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है आत्मा अमूर्त है, वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है अर्थात् अन्य भौतिक पदार्थों के समान इन्द्रियों के द्वारा उसका ज्ञान सम्भव नहीं है तथापि स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्ष या अनुमान आदि के द्वारा इसको जाना जा सकता है। पुनः आत्मा को जानने का दूसरा तरीका - अनात्म अर्थात् पर पदार्थों को जानकर उनसे आत्मा की भिन्नता स्थापित करना है।
अनादि काल से जीव देहासक्ति से बंधा है। वस्तुतः देह आदि पर-पदार्थों में आत्म-बुद्धि ही बंधन का कारण है। इसे तोड़ने के लिये इस भेद विज्ञान का होना परम आवश्यक है कि देह भिन्न है, आत्मा भिन्न है। देह एवं आत्मा
१६ उत्तराध्ययनसूत्र - १४/१६ |
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