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सम्पन्न होता है तो नवीन कर्मों का आश्रव रूक जाता है; नये कर्मों का बन्धन नहीं होता है और तप-साधना से पूर्वबद्ध कर्म क्षय हो जाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि सर्वप्रथम मोहनीयकर्म का क्षय या नाश होता है फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तरायकर्म एक साथ क्षय होते हैं। तदुपरान्त आयु के पूर्ण होने पर चारों अघाती कर्म अर्थात् आयुष्यकर्म, नामकर्म, गौत्रकर्म और वेदनीयकर्म भी विनष्ट हो जाते हैं तब जीव शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। अतः कर्ममल से मुक्त होने के लिए उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार चतुर्विध मोक्षमार्ग की समन्वित साधना नितान्त आवश्यक है। 18
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६.३ सम्यग्ज्ञान
`सभी आध्यात्मिक दर्शनों ने 'ज्ञान' को आत्मा का मूल गुण माना है। ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने हित-अहित, उचित-अनुचित, श्रेय प्रेय अथवा हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का बोध प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन में ज्ञान को मुक्ति का अनन्य साधन माना गया है। लेकिन मोक्षमार्ग की साधना के लिये, समीचीन ज्ञान कौनसा है, इसे जानने के लिए ज्ञान के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन आवश्यक है।
जैन धर्म-दर्शन में ज्ञान के दो रूप माने है: १. सम्यक्ज्ञान २. मिथ्या ज्ञान। सामान्यतः इन्हें यथार्थज्ञान ( प्रामाणिक ज्ञान ) एवं अयथार्थज्ञान समझा जाता है किन्तु सम्यग्ज्ञान की यह व्याख्या पर्याप्त नहीं है। मात्र पदार्थों के यथार्थ ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता क्योंकि सम्यग्ज्ञान भौतिक ज्ञान न होकर आध्यात्मिक ज्ञान है, आत्म ज्ञान है।
जैन दर्शन में मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है । जिस ज्ञान से आत्म स्वरूप का बोध नहीं होता अथवा हेय ज्ञेय और उपादेय का विवेक नहीं होता वह ज्ञान मिथ्या रूप होता है एवं मोक्ष प्राप्ति के लिये अनुपयोगी होता है। इस प्रकार जैन दर्शन में मोक्ष के साधन भूत ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है।
१८ उत्तराध्ययनसूत्र - २६ / ७२,७३ ।
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